Posted on 10 Oct, 2014 01:06 PMपहाड़ पर आकर कवि को ताप हो गया है किंतु हर्षित नदी कोई लोकगीत गा रही है, जैसे पर्व मना रही है कवि गीत को समझ नहीं पा रहा है केवल ताप में बुड़ाबुड़ा रहा है- मां, ओ नदी मां, मुझे थोड़ा-सा बल दो मेरी सूख रही जिजीविषा को जल दो
मां, तुमने अपने रास्ते कई बार बदले हैं एक बार और बदल लो आज की रात तुम मेरे कक्ष में बहो मेरे अंग-संग रहो
Posted on 09 Oct, 2014 09:48 AMतीन नदियां बड़ी दूर से बहती हुई आकर मिलती हैं इस जगह जैसे तीन बहनें हों अपने-अपने दुखों की गठरी उठाए
एक का जल मिलता है दूसरी में दूसरी की लहरें दौड़ती हैं तीसरी में एक की धुन में गुनगुनाती हैं तीनों नदियां एक की ठिठोली में खिलखिलाती हैं तीनों-नदियां एक के दर्द से सिहरती हैं तीनों नदियां
Posted on 07 Oct, 2014 03:49 PMबहते दरिया की लहरों से हर चेहरा पामाल हुआ सूरज ने किरणों को खोया चांद की कश्ती डूब गई रिश्ते टूटे, नक्शे बिगड़े, बेताबी में रंग उड़े पंख-पखेरू, पेड़ पहाड़ी सब ही उथल-पुथल साहिल की रेतें आखिर कौन चुराकर भाग गया नील गगन के आंगन में क्यों लहरों का तूफान उठा तह के अंदर-अंदर जाने ये कैसा हैजान उठा पानी ठहरे तो हम देखें क्या-क्या मोती गर्क हुए
Posted on 07 Oct, 2014 03:37 PMजो कभी इला वास था और अब इलाहाबाद उसी तीर्थराज प्रयाग में गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम में नहाती हुई यह औरत अपने पाप धो रही है या सींच रही है अपने मुरझाए स्वप्न
गंगा की तेज और हिमशीत लहरें उसके पयोधरों से टकरा रही हैं बार-बार लहरों की थप-थप के सुख से पुलक उठी है प्रौढ़ा शिथिल तन में आ गई है कसावट
Posted on 04 Oct, 2014 12:53 PMएक समुंदर मेरे अंदर उमड़-घुमड़कर ज्वार उठाता है वह रोता है- लोग समझते गाना गाता है
कितनी नदियों की व्यथा-कथा को जिए समुंदर कितनी सदियों के खारे जल को पिए समुंदर नीलेपन की ऊब भरी खुद की विशालता बोझ बन गई- अब आसमान का नन्हा तारा उसे लुभाता है