पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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सृष्टि का दुःदोहन
Posted on 16 Nov, 2014 03:49 PM ऊपर असीम नभ का वितान
नीचे अवनि का विकल वदन
वसन हीन तरु करते प्रलाप
गिरिवर का तप्त झुलसता मन

भोर लाज से हो रही लाल
दिवस व्यथित हो रहा उदास
सांध्य पटल पर गहन तिमिर
करने को आतुर प्रलय हास

उद्दाम तरंगें सागर की
सब कूल-किनारे तोड़ चलीं
उन्मुक्त लालसा मानव की
प्रकृति की छवि मानो लील चली
समुंदर
Posted on 25 Oct, 2014 03:43 PM नीली मौजें
सारा दिन
नंगे साहिल के पांव को चूमती हैं
रेत के नन्हें-नन्हें घरौंदे तोड़ती हैं
साहिल की चमकीली रेत पे खिलती हैं
थोड़ी-थोड़ी देर के बाद
गले लगाकर साहिल को
भूरे समुंदर की अजमत के गुण गाती हैं

और समुंदर
मुट्ठी भरकर
अपना खजाना सब को लुटाता रहता है
मैं भी अपने बस्ता में
सीप, शंख, मोती लाया था
जब भी तेरी याद आती है
जलकुमारी
Posted on 24 Oct, 2014 03:41 PM शहर के घाट पर आकर लगी है एक नाव
मल्लाह की बिटिया आई है घूमने शहर

जी करता है जाकर खोलूं
उसकी नाव का फाटक
जो नहीं है
पृथ्वी के पूरे थल का द्वारपाल बनूं
अदब में झुकूं
गिरने-गिरने को हो आए पगड़ी मेरी
जो नहीं है
कहूं
पधारो, जलकुमारी
अपने चेहरे पर नदी और मुहावरे के पानी के साथ
इस सूखे शहर में

एक नदी से प्यार करते हुए
Posted on 24 Oct, 2014 03:32 PM सारी फसलें भादो के उस धान जैसी हैं
सिहर जाती हैं जो पानी के स्पर्श मात्र से

लेकिन अगहनी की दूध भरे शीशों की गमक
जिसकी उम्मीद नहीं की थी
फैल जाती है फेफड़ों में

दुलराता हूं इस गमक को
प्रेम में पुचकारता हूं
संध्या की गमकती हवा गाता हूं
जब दाह सन्नाटे से करता हूं गुफ्तगू

एक अगहनी सुबह
जहां से निकलती हैं जिंदगी की तमाम राहें
बादल
Posted on 24 Oct, 2014 03:11 PM एक
रात को फिर बादल ने आकर
गीले-गीले पंजों से जब दरवाजे पर दस्तक दी
झट से उठ के बैठ गया मैं बिस्तर में

अक्सर नीचे आकर ये कच्ची बस्ती में
लोगों पर गुर्राता है
लोग बेचारे डाम्बर लीप के दीवारों पर-
बंद कर लेते हैं झिरयां
ताकि झांक ना पाए घर के अंदर-

लेकिन, फिर भी-
गुर्राता, चिघाड़ता बादल-
अक्सर ऐसे लूट के ले जाता है बस्ती
नदी का बुलावा
Posted on 24 Oct, 2014 03:09 PM मैं सुनता हूं तुम्हारा बुलावा
बुलावा दूर से आता, सुनता हूं
झपटती पहाड़ियों का हिसार तोड़ते हुए
सुनता हूं उसे
चाहता हूं फिर से देखना तुमको
महसूस करना तुम्हारा ठंडा आलिंगन
या तुम्हारे किनारे खुद को बिठाना
निगलना तुम्हारी सांसें
या पेड़ों की तरह खुद को
तुम पर बिछा देखना
और सवेरे के होठों पर नाचते गीत से
अपने दिनों को फिर से जिंदा करना
नदी ने बरसों
Posted on 16 Oct, 2014 04:07 PM नदी ने बरसों
जिसे प्यार किया
मिलन के लिए
जिसका रोज
इंतजार किया
पाकर जिसे तृप्त काम किया
अब
आज
उसी की लाश लिए बहती है
विरह-विलाप का
शोक-संताप सहती है
किसी से कुछ नहीं कहती है
करुणाकुल छलछलाती रहती है

छत्तीसगढ़ में नदी बिकी
Posted on 14 Oct, 2014 12:43 PM

शिवनाथ नदी को छत्तीसगढ़ सरकार ने एक कॉरपोरेट कंपनी रेडियस वॉटर लिमिटेड के हाथों 1998 में बेच दिया था। जनांदोलन के बाद समाज ने अपनी नदी पर अपना हक दोबारा हासिल किया। जनांदोलन के दौरान ‘छत्तीसगढ़ में नदी बिकी’ गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। लोग लड़ते हुए इसे समवेत स्वर में गाते। इस गीत के रचनाकार कौन हैं, यह मालूम नहीं। हम इसे समाज के संघर्षों से पैदा हुआ गीत मानते हैं और यहां साझा कर रहे हैं क्यों

Boat in river
बाढ़ के बाद
Posted on 10 Oct, 2014 01:13 PM आधी रात को
जबकि पूरा गांव
नींद की बाढ़ में डूब जाता है
कुएं से निकलती हैं कुछ स्त्रियां
और करने लगती हैं विलाप

डबरे से निकलते हैं थोड़े बच्चे
और भगदड़ मचाने लगते हैं

पेड़ों से कुछ पुरुष नीचे उतर आते हैं
और उपछने लगते हैं पानी

कहते हैं कि हर रात को बीचे हुओं की दुनिया
जीवन के लिए छटपटाने लगती है

नदी
Posted on 10 Oct, 2014 01:10 PM नदी की तरह सोचो
तो सुंदर लगती है नदी
पास जाओ तो तुम्हारा नाम लेकर
पुकारती है नदी

जल का स्पर्श करो
तो तुरंत बजे मृदंग-सी कांपती है नदी-
सपने में आए तो
थरथराती लहरों-सी अद्विग्न-
महसूस करो तो आत्मा में
निरंतर बहती-सी लगती है नदी

कितने तो रूप हैं उसके
कितने तो नाम
पहाड़ को छूकर आए तो
पहाड़ी धुन और ऊपर झुके हों
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