पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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हुगली
Posted on 04 Oct, 2014 12:43 PM नदियों के बारे में लिखना बंद करो
शहरों को डुबाती हैं नदियां अपने प्रलय से
प्रतीक्षित बरसात समुंदरों की सृष्टि करती है
हुगली तुम नदी नहीं समुद्र हो
कल्पान्तर हो बहती हुई झोपड़ियां हो
तड़पते हुए जानवर
भौंकने में असमर्थ कुत्ते
भूख-भूली बिल्लियां हो
शर्म-वंचित कुंवारी लड़कियां हो
बच्चों को नहीं खोजनेवाली मां
महासागर का मौन
Posted on 04 Oct, 2014 12:33 PM निश्छल होते हैं कुएं
और कज्जल होता है उनका जल
महासागर नहीं हुए इससे क्या
बेईमान नहीं होते हैं कुएं
जिन्हें भी प्यास लगती है
वे उनकी प्यास बुझाते हैं
जहां भी आग लगती है
हमेशा
वहां आग बुझाते हैं

कुएं कभी तटस्थ नहीं होते
काश, कि महानगर में कुएं होते
तो बंबई में
कब की बुझ गई होती आग
पानी बरसा
Posted on 04 Oct, 2014 12:25 PM ओ पिया, पानी बरसा
घास रही हुलसानी
मानिक के झूमर-सी झूमी मधु-मालती
झर पड़े जीते पीत अमलतास
चातकी की वेदना बिरानी
बादलों का हाशिया है आसपास-
बीच लिखी पांत काली बिजली की-
कूंजों की डार, कि असाढ़ की निशानी
ओ पिया, पानी
मेरा जिया हरसा

खड़खड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात
देखने को आंखें घेरने को बांहें
निर्मल गंगा
Posted on 25 Sep, 2014 09:40 AM

शिव की जटा से उत्पन्न, पर्वतों को चूमती हुई,
घाटियों में अठखेलियां करती, दूध की तरह धवल,
अग्नि की तरह पवित्र है जो।

सैकड़ों गुणों की खान है और मासूमियत से भरी है वो।
सबकी आवश्यकताओं को पूरा करती, सर्वत्र अपनी पवित्रता फैलाती।

कभी इठलाती, कभी बलखाती, अपनी ममता को दर्शाती,

Nirmal Ganga
नदियों को मारो मत...
Posted on 22 Sep, 2014 01:21 PM

नदियों को मारो मत,
निर्मल ही रहने दो।
अविरल तो बहने दो
जीयो और जीने दो।

हिमधर को रेती से,
विषधर को खेती से,
जोड़ो मत नदियों को,
सरगम को तोड़ो मत।

सरगम गर टूटी तो,
टूटेंगे छंद कई,
रुठेंगे रंग कई,
उभरेंगे द्वंद्व कई।
नदियों को मारो मत...

तरुवर की छांव तले।

पालों की सीलेंगे,

polluted river
जल प्रलय
Posted on 16 Sep, 2014 11:28 AM क्रोध में अम्बर तना था
अवनि पर भी बेबसी थी
जिंदगी की डोर मानो
बादलों ने थाम ली थी
पर्वतों से छूट आफत
घाटियों में बह रही थी
महल डूबे झोंपड़ी ने
सांस मानो रोक ली थी
बिछुड़े परिजन कोख उजड़ी
मनुजता असहाय थी

प्रकृति माँ ने धैर्य की
सीमाएं सारी लाँघ ली थीं
स्वर्ग जैसी वादियों में
रक हा हा कर रहा था
दिवस का होना मलिन था
ये विकास या विनाश
Posted on 08 Sep, 2014 01:07 PM

ये विकास है या विनाश है,
सोच रही इक नारी।
संगमरमरी फर्श की खातिर,
खुद गई खानें भारी।
उजड़ गई हरियाली सारी,
पड़ गई चूनड़ काली।
खुशहाली पे भारी पड़ गई
होती धरती खाली।
ये विकास है या....

विस्फोटों से घायल जीवन,
ठूंठ हो गये कितने तन-मन।
तिल-तिल मरते देखा बचपन,
हुए अपाहिज इनके सपने।
मालिक से मजदूर बन गये,

river mining
समय बेढंगा, अब तो चेतो
Posted on 08 Sep, 2014 01:01 PM

हाय! समय ये कैसा आया,
मोल बिका कुदरत का पानी।
विज्ञान चन्द्रमा पर जा पहुंचा,
धरा पे प्यासे पशु-नर-नारी।
समय बेढंगा, अब तो चेतो,
मार रहा क्यों पैर कुल्हाड़ी?

गर रुक न सकी, बारिश की बूंदें,
रुक जाएगी जीवन नाड़ी।
रीत गए जो कुंए-पोखर,
सिकुड़ गईं गर नदियां सारी।
नहीं गर्भिणी होगी धरती,
बांझ मरेगी महल-अटारी।

dry well
जब वर्षा शुरू होती है
Posted on 07 Sep, 2014 01:03 PM कबूतर उड़ना बंद कर देते हैं
गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है
और फिर लौट आती है

मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा
और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की
जो पत्तियों से गिरती है
सिप् सिप् सिप् सिप्. . .

जब वर्षा शुरू होती है
एक बहुत पुरानी-सी खनिज गंध
सार्वजनिक भवनों से निकलती है
और सारे शहर में छा जाती है
कहर नदियों का
Posted on 22 Aug, 2014 04:01 PM कहर नदियों का नहीं है
यह पसीना है
व्यथित हिमवान का
रो रहा है आज मानव
आसन्न संकट देख कर
क्यों नहीं थे अश्रु दृग में
जब धरा के प्राण
गिरी-वन कट रहे थे
विजयी होने की
असीमित लालसा से
तन नदी के सूखते थे

मनुज जाति ने ही तो
निज दुष्कर्म द्वारा
भाग्य आगत का गढ़ा है
अमर होने की
अदम्य लिप्सा संजो कर
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