संगम में नहाती हुई औरत

जो कभी इला वास था
और अब इलाहाबाद
उसी तीर्थराज प्रयाग में
गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम में
नहाती हुई यह औरत
अपने पाप धो रही है
या सींच रही है अपने मुरझाए स्वप्न

गंगा की तेज और हिमशीत लहरें
उसके पयोधरों से टकरा रही हैं बार-बार
लहरों की थप-थप के सुख से पुलक उठी है प्रौढ़ा
शिथिल तन में आ गई है कसावट
और मन तैरता हुआ जा पहुंचा है तीस बरस पीछे
जब ऐसे ही नहा रही थी वह अपने गांव की नदी में
लहरें इसी तरह कर रही थीं स्पर्शाघात
उसी समय कहीं से आ गया था वह
अपनी गाय-भैंसों को पानी पिलाने

वह अद्भुत क्षण था
जब उन दोनों ने एक-दूसरे को देखा था
और वह देखना कुछ ऐसा
कि उसके बाद कुछ नहीं था उन चार आंखों के बीच
वहां सिर्फ प्यास थी और पानी था
इसके बाद वह रोज आने लगा था
गाय-भैंसों के बहाने
अपनी इच्छाओं को पानी पिलाने

दो अदृश्य इच्छाओं और एक दिखने वाली नदी का संगम
एक खेत बन गया था
जहां इसने बोए थे ढेर-से स्वप्न

फिर एक दिन
वह किसी गाय की तरह बांध दी गई दूसरे खूंटे से
और वह बैल की तरह जुत गया हल में

बाद में इस गाय-सी औरत को समझाया गया
कि अब उस खूंटे के अलावा किसी के बारे में
सोचना भी पाप है
पर बार-बार प्रतिज्ञा करने के बावजूद
अक्सर इससे हो ही जाता है
उसे याद करने का पाप

अब देखो न
इस समय भी जब यहां पुण्य सलिला में
धोने आई है यह अपने पाप
इससे फिर हो रहा है वही अपराध
पानी को छपकोरते इसके हाथ
थम गए हैं अचानक पाप-बोध से
गायब हो गया है सारा उल्लास

इस उल्लास के हत्यारे हम-आप
क्या नहीं कर रहे हैं कोई पाप

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