पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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बरसो रे बरसो मेघा: एक नाटक
Posted on 06 Jul, 2015 12:49 PM यह पानी भी विचित्र है—कभी हरहराती बाढ़, कभी रिमझिम-रिमझिम बारिश, कभी जलप्रलय और सृष्टि परिवर्तन, कभी धारासार वर्षा का रोमांस, कभी प्रेम की सरस बूँदों का स्पर्श, कभी नीर भरी दुख की बदली और कभी निर्झर-सा झरझर, कभी बादल का अमर राग- ‘झूम-झूम मृदु गरज-गरज घनघारे’ जो कृषकों को नयी आशा और जीवन देता है और कभी वही बादल मधुर गीत में ढल जाते हैं- ‘बादल छाए, य
जब ईंधन नहीं रहेगा
Posted on 04 Jul, 2015 04:10 PM
दस साल से ऊपर की उम्र वाले अभी मोटरगाड़ियों को भूले नहीं हैं।
गंग धार
Posted on 02 Jul, 2015 11:01 AM लांघ वन उपत्यका
त्रिलोक ताप हरण हेतु
हिमाद्रि तुंग कन्दरा
त्याग कर निकल चली
स्वमार्ग को प्रशस्त कर
अतुल उमंग से भरी
विरक्त भाव धार कर
प्रवेग से उमड़ चली

कभी सौम्य पुण्यदा
रौद्र रूप धारती कभी
ब्रह्म के विधान का
दिव्य लेख लिख रही
विवेकहीन मनुज को
प्रचंड प्रदाहिनी बनी
अदम्य शक्ति से भरी
दम्भ भंग कर रही
गंग धार
Posted on 25 Jun, 2015 11:54 AM लांघ वन उपत्यका
त्रिलोक ताप हरण हेतु
हिमाद्रि तुंग कन्दरा
त्याग कर निकल चली
स्वमार्ग को प्रशस्त कर
अतुल उमंग से भरी
विरक्त भाव धार कर
प्रवेग से उमड़ चली

कभी सौम्य पुण्यदा
रौद्र रूप धारती कभी
ब्रह्म के विधान का
दिव्य लेख लिख रही
विवेकहीन मनुज को
प्रचंड प्रदाहिनी बनी
अदम्य शक्ति से भरी
दम्भ भंग कर रही
नदिया धीरे बहो
Posted on 14 Jun, 2015 04:00 PM

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष


इस पर्यावरण दिवस पुरबियातान फेम लोकगायिका चन्दन तिवारी की पहल
नदी के मर्म को समझने, उससे रिश्ता बनाने की संगीतमय गुहार


. पाँच जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर अपने उद्यम व उद्यमिता से एक छोटी कोशिश लोकगायिका चन्दन तिवारी भी कर रही हैं। साधारण संसाधनों से साधारण फलक पर यह असाधारण कोशिश जैसी है। चन्दन पर्यावरण बचाने के लिये अपनी विधा संगीत का उपयोग कर और उसका सहारा लेकर लोगों से नदी की स्थिति जानने, उससे आत्मीय रिश्ता बनाने और उसे बचाने की अपील करेंगी।

लोकराग के सौजन्य व सहयोग से चन्दन ने ‘नदिया धीरे बहो...’ नाम से एक नई संगीत शृंखला को तैयार किया है, जिसका पहला शीर्षक गीत वह पर्यावरण दिवस पाँच जून को ऑनलाइन माध्यम से देश तथा देश के बाहर विभिन्न स्थानों पर जनता के बीच लोकार्पित कीं। इस गीत के बोल हैं- अब कौन सुनेगा तेरी आह रे नदिया धीरे बहो...। इस गीत की रचना बिहार के पश्चिम चम्पारण के बगहा के रहने वाले मुरारी शरण जी ने की है।
माँ गंगे
Posted on 14 Jun, 2015 12:31 PM अमृत घट प्रवहित शुचि धारा
हिमवान पिता का मधुर हास
लहरों में तेरी गूँजे था सतत
जीवन का मधुरिम उल्लास

शिव अलकों से निकलीं अविरल
कल-कल कलरव करतीं गंगे
अवनि पर स्वर्ग सोपान रहीं
सहमी सहमी बहती क्यों गंगे

कभी सूर्य रश्मियाँ भोर चढ़े
तुमसे मिलने को आती थीं
सुर सरि तुम्हरे पावन जल में
स्वर्णिम अठखेली करती थीं
आस्था और विकास की एक त्रासद कहानी ' दर दर गंगे'
Posted on 03 Mar, 2015 11:52 AM

भारतीय संस्कृति में नदी माँ है। नदियों के साथ हम अपनी माँ जैसा ही व्यवहार तो करते थे। बचपन में माँ दूध पिलाकर पोषण करती है। वैसे ही नदी भी जल पिलाकर जीवनभर पोषण करती थी। आज सब भूल गए हैं कि पीने का पानी नदी से आता है। इस अज्ञान ने नदी से दूर कर दिया है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में नदियों को पूर्णत: प्रदूषित कर दिया है। उद्योगों ने नदियों को मैला ढोनेवाली मालगाड़ी बना दिया है। अब पानी पीकर या स्

Dar Dar Gange
समुद्र पीछे खिसक रहा है
Posted on 18 Feb, 2015 04:25 PM समुद्र पीछे खिसक रहा है
पीछे खिसक रहा है कच्छप
अपनी पीठ पर धरती को धारण किये

जैसे दिनों-दिन कम होता जाता है
पूर्णिमा के बाद चाँद
कम होती जा रही हैं उम्मीदें
आदमी पर आदमी का भरोसा
कम होता जा रहा है

यह घूमती हुई पृथ्वी
डायनासॉर-से खुले हुए
जबड़े ने आ गई है

पेड़ स्तब्ध हैं, हवा शांत
देह पसीने से तर
घर की ऐतिहासिक याद
Posted on 18 Feb, 2015 03:28 PM जब हम घर बनाते हैं
तब आकाश को गुफा में बदल रहे होते हैं
उतनी जमीन पर जंगल या खेती को कम कर रहे होते हैं
हमारा स्वभाव एकदम उस घर जैसा होता जाता है
जिसमें जंगल, जानवर और गुफाएं शामिल रही हों

वीराने ने जड़ जमाये किसी खंडहर में
जैसे कोई वनस्पति खिलने-खिलने को हो
हर नये में एक खंडहर होता है पहली बार टूटे दांत-सा
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