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‘‘यदि हमारे गाँव ऐसे स्थान पर हैं जहाँ पर्यावरण व इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो शहर ऐसा स्थान है, जहाँ इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। शहर के साझा स्थानों को इस्तेमाल तो सभी करना चाहते हैं, उस पर अपना अधिक से अधिक अधिकार का दावा भी सभी करते हैं, लेकिन उस स्थान के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं होता।’’ यह बात आज की नहीं है, सन 1988 की है, जब वैश्विकरण का हल्ला
‘‘यह वनस्थली खड़ी है विविध पुष्पचिन्हों से सज्ज्ति हरित साड़ी पहनकर अपने कोमल शरीर पर, अकारण अंकुरित पुलक से सिहरी पक्षियों के कलरव में बारम्बार कहलास करती हुई’’ (मलयालम के महान कवि जी.शंकर कुरूप के काव्य संग्रह ‘औटक्कुशल’ (बाँसुरी) की एक रचना)