पानी

आदमी तो आदमी
मैं तो पानी के बारे में भी सोचता था
कि पानी को भारत में बसना सिखाऊंगा

सोचता था
पानी होगा आसान
पूरब जैसा
पुआल के टोप जैसा
मोम की रौशनी जैसा

गोधूलि में उस पार तक
मुश्किल से दिखाई देगा
और एक ऐसे देश में भटकाएगा
जिसे अभी नक्शे में आना है

ऊंचाई पर जाकर फूल रही लतर
जैसे उठती रही हवा में नामालूम गुंबद तक
यह मिट्टी के घड़े में भरा रहेगा
जब भी मुझे प्यास लगेगी

शरद में हो जाएगा और भी पतला
साफ और धीमा
किनारे पर उगे पेड़ की छाया में

सोचता था
यह सिर्फ शरीर के ही काम नहीं आएगा
जो रात हमने नाव पर जगकर गुजारी
क्या उस रात पानी
सिर्फ शरीर तक आकर लौटता रहा
क्या-क्या बसाया हमने
जब से लिखना शुरू किया

उजड़ते हुए बार-बार
उजड़ने के बारे में लिखते हुए
पता नहीं वाणी का
कितना नुकसान किया

पानी सिर्फ वही नहीं करता
जैसा उससे करने के लिए कहा जाता है
महज एक पौधे को सींचते हुए पानी
उसकी जरा-सी जमीन के भीतर भी
किस तरह जाता है

क्या स्त्रियों की आवाजों में बच रही हैं
पानी की आवाजें
और दूसरी सब आवाजें कैसी हैं

दुखी और टूटे हुए हृदय में
सिर्फ पानी की रात है
वहीं है आशा और वहीं है
दुनिया में फिर से लौट आने की अकेली राह

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