भारत

Term Path Alias

/regions/india

भूदान: यज्ञ की लूट की बेशर्मी
Posted on 07 Nov, 2011 11:04 AM

भूदान यज्ञ ने अपने 6 दशक पूरे कर लिए हैं। इस प्रक्रिया में करीब 60 लाख एकड़ भूमि एकत्रित हुई थ

सुनहरे अतीत से सुनहरे भविष्य तक
Posted on 07 Nov, 2011 10:06 AM

गांधी विचार शाश्वत रूप से प्रवाहमय हैं। उनके अनुरूप आचरण की आवश्यकता आज जितनी है, उतनी इ

Book cover Anupam Mishra
नदियों के साथ जुड़ा है देश का भविष्य
Posted on 05 Nov, 2011 03:00 PM

विगत दिनों इलाहाबाद में नदियों के पुनर्जीवन को लेकर महत्वपूर्ण सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमे

आज भी खरे हैं तालाब (मराठी)
Posted on 04 Nov, 2011 04:50 PM

आज भी खरे हैं तालाब (मराठी)अपनी पुस्तक “आज भी खरे हैं तालाब” में श्री अनुपम जी ने समूचे भारत के तालाबों, जल-संचयन पद्धतियों, जल-प्रबन्धन, झीलों तथा पानी की अनेक भव्य परंपराओं की समझ, दर्शन और शोध को लिपिबद्ध किया है।

भारत की यह पारम्परिक जल संरचनाएं, आज भी हजारों गाँवों और कस्बों के लिये जीवनरेखा के समान हैं। अनुपम जी का यह कार्य, देश भर में काली छाया की तरह फ़ैल रहे भीषण जलसंकट से निपटने और समस्या को अच्छी तरह समझने में एक “गाइड” का काम करता है। अनुपम जी ने पर्यावरण और जल-प्रबन्धन के क्षेत्र में वर्षों तक काम किया है और वर्तमान में वे गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के साथ कार्य कर रहे हैं। उनकी पुस्तकें, खासकर “आज भी खरे हैं तालाब” तथा “राजस्थान की रजत बूंदें”, पानी के विषय पर प्रकाशित पुस्तकों में मील के पत्थर के समान हैं, और आज भी इन पुस्तकों की विषयवस्तु से कई समाजसेवियों, वाटर हार्वेस्टिंग के इच्छुकों और जल तकनीकी के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को प्रेरणा और सहायता मिलती

आज भी खरे हैं तालाब (मराठी)
गरीब पर गिरेगी अमीर के अय्याशी की गाज
Posted on 04 Nov, 2011 03:24 PM

औद्योगिक इकाईयों की स्थापना और उसमें उत्पादन को सुचारू करने के लिए जिस भारी मात्रा में हमें उर्जा चाहिए थी उसके लिए परंपरागत स्रोत से काम नहीं चल सकता था। उस वक्त की तकनीकि ने जो विकल्प प्रस्तुत किया वह मुख्य तौर पर जीवाश्म ईंधन पर आधारित था। यह जीवाश्म ईंधन कोयला और तेल के रूप में प्राप्त किया गया और औद्योगिक उत्पादन से लेकर परिवहन तक हर जगह उर्जा के इन्हीं दो प्रारूपों को आधार बनाकर तकनीकि विकसित की गई।

हैती, बांग्लादेश, जिम्बाबवे, सियरा लियोन, मेडागास्कर कोई ऐसे देश नहीं हैं जिन्हें अमीर या सुविधाभोगी कहा जा सके लेकिन ये वो देश हैं जो अगले एक दशक में बिगड़ते पर्यावरण की सबसे भीषण मार झेंलेगे। बांग्लादेश की राजधानी ढाका हो या फिर भारत का कोलकाता सब पर बाढ़ और चक्रवात का खतरा मंडरा रहा है। इन सबमें सबसे बड़ा खतरा बैंकाक को है। थाइलैण्ड के इस शहर के कई हिस्से बाढ़ के कारण अगले कुछ सालों में बर्बाद हो सकते हैं। यह सब उथल पुथल होगी पर्यावरण में हो रहे बदलाव के कारण। पश्चिम से जिस औद्योगिक विकास ने पूरब में पैर पसारा था उसी पश्चिम ने क्लाइमेट चेंज की चाभी जेब से निकाली और ताला खोलकर बोलना शुरू किया कि देखो दुनिया का पर्यावरण कैसे बिगड़ रहा है? जिस रिपोर्ट के हवाले से यह खबर आई है कि पर्यावरण में होने वाले बदलाव के कारण दुनिया के सर्वाधिक गरीब देश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे वह लंदन की एक रिसर्च संस्था है मेपलक्राफ्ट। मेपलक्राफ्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक के लिए ठेके पर रिसर्च करती है और अपने शोध के लिए विश्वसनीय होने का दावा करती है।

अनपढ़, असभ्य और अप्रशिक्षित
Posted on 04 Nov, 2011 11:06 AM

केवल पाईप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। उस समय तो शायद नहीं लेकिन आजादी के बाद यह बात समझ में आने लगी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और वहां नये मोहल्ले, बाजार, स्टेडियम खड़े हो गये थे। पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गये मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और वर्षा बीती नहीं कि शहरों में जल संकट छाने लगता है। शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं चाहिए।

गांव में तकनीकी भी बसती है यह बात सुनकर समझ पाना उन लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल होता है जो तकनीकी को महज मशीन तक सीमित मानते हैं लेकिन तकनीकी क्या वास्तव में सिर्फ मशीन तक सीमित है? यह बड़ा सवाल है जिसके फेर में हमारी बुद्धि फेर दी गई है। मशीन, कल पुर्जे, औजार से भी आगे अच्छी सोच सच्ची तकनीकी होती है। अच्छी सोच से सृष्टिहित का जो लिखित और अलिखित शास्त्र विकसित किया जाता है उसके विस्तार के लिए जो कुछ इस्तेमाल होता है वह तकनीकी होती है। इस तकनीकी को समझने के लिए कलपुर्जे के शहरों से आगे गांवों की ओर जाना होता है। भारत के गांवों में वह शास्त्र और तकनीकी दोनों ही लंबे समय से विद्यमान थे, लेकिन कलपुर्जों की कालिख ने उस सोच को दकियानूसी घोषित कर दिया और ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल करने वाले लोग अनपढ़, असभ्य और अप्रशिक्षित घोषित कर दिये गये।

traditional water system
इक्कीसवीं सदी में जल की बढ़ती महत्ता
Posted on 04 Nov, 2011 10:11 AM

हमारे ग्रह पर मौजूद ज्यादातर शुद्ध जल ध्रुवीय हिम प्रदेशों में जमी हुई अवस्था में है या फिर जमीन की अथाह गहराई मे मौजूद भूमिगत झीलों में जमा है, जहां तक पहुंचना संभव नहीं है। मात्र एक फीसदी शुद्ध जल लोगों को पीने व इस्तेमाल करने के लिए उपलब्ध है। पृथ्वी के ज्यादातर हिस्सों में लोग शुद्ध जल के लिए झीलों, नदियों, जलाशयों और भूमिगत जल स्रोतों पर निर्भर रहते हैं, जिनमें बारिश या हिमपात के जरिए पानी पहुंचता रहता है।

जैसा बीसवीं सदी में तेल को लेकर रहा, उसी तरह अब जल भी ऐसी अनिवार्य सामग्री हो सकती है, जिसके आधार पर इक्कीसवीं सदी करवट लेगी। हालांकि मैं कोई भविष्य वक्ता नहीं हूं जो यह बता सके कि अगली जंग पानी को लेकर होगी या नहीं, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि जो लोग किसी भी रूप में जल के कारोबार से जुड़ते हैं, उनकी अगले दस साल में चांदी हो सकती है। धरती पर लोगों की आबादी सात अरब तक पहुंचने, लगातार होते शहरीकरण व तीव्र विकास के साथ पानी की मांग में बेतहाशा बढ़ोतरी होने वाली है। वॉशिंगटन स्थित एक पर्यावरण थिंक टैंक निकाय वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट से जुड़ी क्रिस्टी जेनकिंसन कहती हैं कि पिछली सदी में जल का इस्तेमाल जनसंख्या वृद्धि की तुलना में दोगुनी दर से बढ़ा है।

फॉरेंसिक में फलत-फूलता कैरियर
Posted on 04 Nov, 2011 09:49 AM

फॉरेंसिक साइंस, साइंस तो है लेकिन इसे केवल साइंस का ही पार्ट नहीं मान सकते हैं। केवल साइंस के स्टूडेंट ही इसकी पढ़ाई करें, ऐसी भी बाध्यता नहीं है। हां, साइंस के स्टूडेंट को इसे समझने में ज्यादा सहूलियत होती है। फॉरेंसिक साइंस अब विदेश में ही नहीं, देश में भी काफी लोकप्रिय हो रहा है। इस क्षेत्र में नौकरियों की भरमार को देखते हुए स्टूडेंट्स का इस ओर तेजी से रुझान हो रहा है। फॉरेंसिक साइंस की पढ़ाई करने वाले के लिए पढ़ाई के तमाम ऑप्शंस हैं। आप चाहें तो डिप्लोमा कोर्स करें या फिर पीएचडी। अच्छी बात तो यह है कि हर स्तर पर नौकरी का स्कोप है। डिप्लोमा कोर्स करने के भी आप कैरियर शुरू कर सकते हैं। इसके बाद आप चाहें तो आगे की पढ़ाई करते जाएं और कैरियर को बढ़ाते जाएं।

फॉरेन्सिक साइंस में कैरियर
विकास के मानक को बदलना जरूरी
Posted on 03 Nov, 2011 12:11 PM

अगर एक नजर देश की नदियों पर डालें, तो इन नदियों ने अपना पानी लगातार खोया है, चाहे वह बरसाती नदी हो या फिर ग्लेश्यिर से निकलने वाली सदनीरा। इनमें लगातार पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है। इनमें वर्षात बिन वर्षा वाले पानी का अंतर बहुत बड़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण नदियों के जलागम क्षेत्रो का वन-विहीन होना है। पिछले कुछ समय से देश में पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। इसी तरह उपजाऊ मिट्टी की जगह रसायनों ने ली है।

पूरी दुनिया में आज की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चर्चा का अहम हिस्सा विकसित और विकासशील देशों की बढ़ती सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दर है। बेहतर होती जीडीपी का सीधा मतलब होता है, उद्योगों की अप्रत्याशित वृद्धि। यानी ऊर्जा की अधिक खपत और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर। इस तरह के विकास का सीधा प्रभाव आदमी की जीवन शैली पर पड़ता है। आरामदेह वस्तुएं आवश्यकताएं बनती जा रही हैं। कार, एसी व अन्य वस्तुएं ऊर्जा की खपत पर दबाव बनाती जा रही हैं। सच तो यह है कि अच्छी जीडीपी और विलासिता का लाभ दुनिया में बहुत से लोगों को नहीं मिलता, पर इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ रही है।

जैविक खाद और खाद्यान्न उत्पादन
Posted on 02 Nov, 2011 04:30 PM

यह व्यवस्था मिट्टी को उसके पोषक तत्वों से अलग करने में विश्वास नहीं करती और आज की जरूरत के लिए उसे किसी प्रकार से खराब नहीं करती। इस व्यवस्था में मिट्टी एक जीवित तत्व है। मिट्टी में जीवाणुओं और अन्य जीवों की जीवित संख्या उसकी उर्वरता में महत्वपूर्ण योगदान करती है और उसे किसी भी कीमत पर सुरक्षित और विकसित किया जाना चाहिए। मृदा कि संरचना से लेकर मृदा के आवरण तक उसका पूरा वातावरण अधिक महत्वपूर्ण होता है।

हालांकि भारत इन दिनों खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर काम कर रहा है, लेकिन लोगों के कुछ खास समूह समय-समय पर 'जैव कृषि' का मुद्दा उठाते रहते हैं। उनका दावा है कि वह 'स्वच्छ कृषि' है और फसलों की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों के दुष्प्रभावों से मुक्त है। मानवता के भविष्य के लिए चिंतित स्थानीय पर्यावरणविद, ग्रीनपीस जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन और नाना प्रकार के अन्य परोपकारी लोग 'रासायनिक उर्वरकों' का इस्तेमाल बंद न करने पर उनकी भावी पीढ़ियों के समक्ष उत्पन्न होने वाले संकट के बारे में सचेत कर रहे हैं। वास्तव में कुछ देशों के पूर्व अनुभवों को देखते हुए खाद्यान्न उत्पादन में जैव उवर्रकों का प्रयोग संकट पैदा करने का सुनिश्चित तरीका है और सिर्फ 'जैव उर्वरकों' से उगाई जाने वाली फसलों की कम उत्पादकता अकाल को प्रेरित कर सकती है। 50 के दशक में हमारे पड़ोसी देश चीन का यह अनुभव रहा है, जब सिर्फ 'जैव उर्वरकों' के प्रयोग और गोबर, मानव अवशिष्ट, पेड़ के गिरे हुए पत्तों आदि पर निर्भरता से अकाल आ गया था, जिसमें 3 करोड़ लोगों की जानें चली गई थीं।
×