अगर एक नजर देश की नदियों पर डालें, तो इन नदियों ने अपना पानी लगातार खोया है, चाहे वह बरसाती नदी हो या फिर ग्लेश्यिर से निकलने वाली सदनीरा। इनमें लगातार पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है। इनमें वर्षात बिन वर्षा वाले पानी का अंतर बहुत बड़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण नदियों के जलागम क्षेत्रो का वन-विहीन होना है। पिछले कुछ समय से देश में पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। इसी तरह उपजाऊ मिट्टी की जगह रसायनों ने ली है।
पूरी दुनिया में आज की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चर्चा का अहम हिस्सा विकसित और विकासशील देशों की बढ़ती सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दर है। बेहतर होती जीडीपी का सीधा मतलब होता है, उद्योगों की अप्रत्याशित वृद्धि। यानी ऊर्जा की अधिक खपत और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर। इस तरह के विकास का सीधा प्रभाव आदमी की जीवन शैली पर पड़ता है। आरामदेह वस्तुएं आवश्यकताएं बनती जा रही हैं। कार, एसी व अन्य वस्तुएं ऊर्जा की खपत पर दबाव बनाती जा रही हैं। सच तो यह है कि अच्छी जीडीपी और विलासिता का लाभ दुनिया में बहुत से लोगों को नहीं मिलता, पर इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ रही है।
भारत जैसे विकासशील देश में बढ़ती जीडीपी की दर 85 प्रतिशत लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती। जीडीपी अस्थिर विकास का सामूहिक सूचक है। इसमें केवल उद्योगों, ढांचागत बुनियादी सुविधाओं, सेवाओं और आंशिक खेती को विकास का सूचक माना जाता है। इसमें खेती को छोड़कर बाकी सभी सूचक समाज के एक खास हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। बढ़ते औद्योगिकीकरण से दो प्रकार की भ्रांतियां पैदा हुई हैं। एक तो जीडीपी को ही संपूर्ण विकास का विकल्प समझा जाने लगा है और इसकी आड़ में जीवन से जुड़ी मुख्य मूलभूत चीजों- हवा, पानी, मिट्टी के लेखे-जोखे को लगातार नकारा जा रहा है।
पिछले दो दशकों में बढ़ती जीडीपी की सबसे बड़ी मार पर्यावरणीय उत्पादों पर पड़ी है। हवा, पानी और जंगलों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ा है। जिससे आज मौसम में बदलाव, ग्लोबल वार्मिंग, सूखती नदियां, बंजर होती उपजाऊ मिट्टी, यानी एक-एक करके सब तरफ विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। अब इन सबका व्यापार भी शुरू हो गया है। हमने कभी नहीं सोचा था कि पानी भी कभी बंद बोतलों में बिकेगा। आज यह हजारों करोड़ों का व्यापार बन गया है। यह प्राकृतिक संसाधन बोतलों में बंद न होकर यदि नदी, नालों, कुओं व झरनों में होता, तो प्राकृतिक चक्र पर इसका विपरीत प्रभाव न पड़ता। रासायनिक खाद के बढ़ते प्रचलन ने उपजाऊ मिट्टी की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। वहीं प्राकृतिक रूप से उगने वाली वानस्पतिक संपदा पर भी इनका विपरीत प्रभाव पड़ा है। वनों के अंधाधुंध और अवैज्ञानिक दोहन के लिए अपने घर-बाहर को सजाने की विलासितापूर्ण सभ्यता ने जीवन को कई तरह की मुसीबतों में डाल दिया है।
प्राकृतिक संसाधनों के अप्राकृतिक दोहन की गंभीरता को देखते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्योटो, कोपेनहेगन और कानकुन सभी वार्ताओं में बढ़ती जीडीपी को भी इसका जिम्मेदार समझा गया है। विकसित देश विकासशील देशों की बढ़ती जीडीपी के प्रति चितिंत हैं, क्योंकि इसका सीधा संबंध उद्योगों से जुड़े कार्बन उत्सर्जन से है। विकासशील देश विकसित देशों के खिलाफ लामबंदी कर अपने हिस्से का विकास तय करना चाहते हैं। पर्यावरण की आड़ में आर्थिक समृद्धि की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस खींचतान में जीवन की अहम आवश्यकताओं हवा, पानी, मिट्टी को हम भूलते जा रहे हैं। अगर जीडीपी के सापेक्ष इन आवश्कताओं को भी महत्व दे दिया जाए, तो मानव जीवन के संकट का कभी प्रश्न खड़ा नहीं होगा।
अगर एक नजर देश की नदियों पर डालें, तो इन नदियों ने अपना पानी लगातार खोया है, चाहे वह बरसाती नदी हो या फिर ग्लेश्यिर से निकलने वाली सदनीरा। इनमें लगातार पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है। इनमें वर्षात बिन वर्षा वाले पानी का अंतर बहुत बड़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण नदियों के जलागम क्षेत्रो का वन-विहीन होना है। पिछले कुछ समय से देश में पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। इसी तरह उपजाऊ मिट्टी की जगह रसायनों ने ली है। जिससे उत्पन्न तमाम विकृतियों का प्रभाव मनुष्य ही नहीं, प्राकृतिक संपदा पर भी पड़ा है। दूसरी ओर कल-कारखानों, गाड़ियों के उत्सजर्न ने प्राणवायु के गुणों पर प्रतिकूल असर डाला है।
देश के 45 प्रतिशत लोग आज भी कई प्रकार की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं। उनके पास रहने के लिए न घर है, न बिजली, न शौचालय और न ही रोजगार। ऐसे में देश की प्रगति को मात्र बढ़ती जीडीपी के बल पर कैसे सराहा जा सकता है? आज आम आदमी का सीधा संबंध रोटी, कपड़ा, हवा, पानी, बिजली और रोजगार से है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भौगोलिक परिस्थितिवश और यातायात के साधनों से अलग-थलग पड़े गांवों का चूल्हा-चौका भी प्रकृति की ही कृपा पर निर्भर है।
दुनिया भर में अब भी गांवों की आर्थिकी का आधार वहां पर उपलब्ध संसाधनों की स्थिति के दम पर आंका जाता है। घास, जलावन की लकड़ी, वनोत्पादन, पानी, पशुपालन, कृषि, सबका सीधा संबंध प्राकृतिक उत्पादों से है। देश की बढ़ती जीडीपी से इनका कोई लेना-देना नहीं है। गत दशकों में इन उत्पादों पर हमारे एकतरफा आर्थिक विकास का प्रतिकूल असर पड़ा है, जो गांव अपने प्राकृतिक उत्पादों की निर्भरता से जिंदा थे, वे आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं।
प्राकृतिक उत्पादों की कमी से मात्र गांव की व्यवस्था ही नहीं चरमराई, बल्कि इसका प्रभाव देश और विश्व की पारिस्थितिकी पर भी पड़ा है। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि विकास की परिभाषा उद्योग, ढांचागत बुनियादी विकास व सेवा क्षेत्र के अलावा जीवन से जुड़े अति आवश्यक संसाधनों की प्रगति से भी जुड़ी होनी चाहिए, जिसमें आर्थिकी के अलावा पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के मापदंड भी तय किए जाने जरूरी हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ-साथ सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) का भी देश के विकास में समानांतर उल्लेख होना आवश्यक है।
ऐसा करने से हमें अपनी आर्थिक व पर्यावरणीय स्थिति की दिशा का भान भी रहेगा। बढ़ती जीडीपी के साथ बढ़ती जीईपी हमें संतुलित विकास की ओर मजबूती प्रदान करेगी। यह पूरी दुनिया के देशों के लिए आवश्यक है कि वे जीडीपी के साथ-साथ जीईपी की भी पैरवी कर अपने संतुलित विकास की चिंता करें, अन्यथा जीडीपी और जीईपी का बढ़ता अंतर असंतुलित विकास का सबसे बड़ा कारक होगा। अब इस तरह की चर्चा देश और संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलनों में होनी चाहिए।
जीईपी के आंकड़ों में देश में प्रतिवर्ष वनों की वृद्धि, मिट्टी की रोकथाम के प्रयत्न, वर्षा जल के संरक्षण और पानी, हवा को स्वच्छ बनाने के प्रयासों को भी दर्शाना होगा। इसके सफल क्रियान्वयन के लिए देश व राज्यों में विभागीय स्तर पर जिम्मेदारी निर्धारित हो, जो सांख्यिकी विभाग के साथ जीईपी का आंकड़ा तैयार करने में सहायक हो। मात्र जीडीपी के साथ अब हम ज्यादा समय तक सुखी नहीं रह सकते। जीईपी वर्तमान समय की आवश्यकता है। घटती-बढ़ती, स्थिर जीईपी ही हमारी बढ़ती जीडीपी को विकास को सही आईना दिखा सकती है।
ये लेखक के अपने विचार हैं।
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