अनिल जोशी

अनिल जोशी
मौसम परिवर्तन के संदर्भ में टिकाऊ जीवन पद्धतियों की समझ
Posted on 09 Jun, 2014 12:03 PM

प्रस्तुत दस्तावेज में हमने कोशिश की है कि सदियों से दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र ‘उत्तराखंड‘ में रहने वाले लोगों की जीवन परंपरा में टिकाऊ जीवन शैली के सूत्र तलाशें। हमने यहां रहने वाले लोगों की बुद्धि तथा जीवनशक्ति के संयोग से बने जीवन के आधार - खेती-बाड़ी को अपनी वार्ता का केंद्र बनाया। प्रशिक्षित शोधार्थियों तथा शोध संस्थाओं को यह शोध प

pine forest
हिमालय सिर्फ हिमालयी लोगों के चिंता का विषय नहीं है
Posted on 16 May, 2014 09:14 AM ‘हैस्को’ एनजीओं के प्रमुख अनिल जोशी के भाषण का लिखित पाठ यहां प्रस्तुत है। उनका यह वक्तव्य 9 सितंबर 2011 को हिमालय दिवस के अवसर पर दिया गया था।
Himalaya
हमारी स्कूली शिक्षा का हिस्सा बने आपदा प्रबंधन
Posted on 05 Sep, 2012 03:59 PM
आपदा ज्यादातर मानवीय ही होती है। भूकंप, बाढ़ और अतिवृष्टि जैसी परिस्थितियों में प्राथमिक विद्यालय ही आश्रय बनते हैं। दूसरा बड़ा आश्रय पंचायत भवन होता है। ये दोनों ही आशिंक रूप से आश्रय के केंद्र होते हैं। ऐसी परिस्थिति में इनसे जुड़े कर्मचारी स्वतः ही स्वयंसेवक हो जाते हैं। जरूरी है कि हम अपने प्राथमिक स्कूलों के अध्यापक और पंचायत कर्मियों को आपदा प्रबंधन के गुर सिखाएं। साथ ही आपदा प्रबंधन हमार
Disaster management
परंपराओं में ही है जल संकट का समाधान
Posted on 26 Jun, 2012 01:52 PM

जलसंकट का बड़ा कारण केवल बढ़ती खपत या आबादी नहीं है, हमें नई विधियों को पुरानी परंपराओं के साथ समावेश करके ही जल व्यवस्था पर मंथन करना चाहिए, जिसका मुख्य आधार वर्षा जल ही है। जलसंकट की वजह यह तो नहीं मानी जा सकती कि हमारे पास पर्याप्त पानी नहीं है, क्योंकि हमारे यहां किसी भी तरह के पानी का स्रोत वर्षा ही है। और वर्षा प्रायः हर वर्ष बराबर मात्रा में होती है। फिर भी पानी का संकट है। सदियों से

water crisis
मिट्टी हमारा साथ छोड़ रही है
Posted on 14 Apr, 2012 04:17 PM

हम मिट्टी को यों ही हलके में लेते रहेंगे, तो यह तसवीर नहीं बदलने वाली। इसका खामियाजा आखिरकार हमें ही भुगतना पड़ेग

soil
विकास के मानक को बदलना जरूरी
Posted on 03 Nov, 2011 12:11 PM

अगर एक नजर देश की नदियों पर डालें, तो इन नदियों ने अपना पानी लगातार खोया है, चाहे वह बरसाती नदी हो या फिर ग्लेश्यिर से निकलने वाली सदनीरा। इनमें लगातार पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है। इनमें वर्षात बिन वर्षा वाले पानी का अंतर बहुत बड़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण नदियों के जलागम क्षेत्रो का वन-विहीन होना है। पिछले कुछ समय से देश में पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। इसी तरह उपजाऊ मिट्टी की जगह रसायनों ने ली है।

पूरी दुनिया में आज की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चर्चा का अहम हिस्सा विकसित और विकासशील देशों की बढ़ती सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दर है। बेहतर होती जीडीपी का सीधा मतलब होता है, उद्योगों की अप्रत्याशित वृद्धि। यानी ऊर्जा की अधिक खपत और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर। इस तरह के विकास का सीधा प्रभाव आदमी की जीवन शैली पर पड़ता है। आरामदेह वस्तुएं आवश्यकताएं बनती जा रही हैं। कार, एसी व अन्य वस्तुएं ऊर्जा की खपत पर दबाव बनाती जा रही हैं। सच तो यह है कि अच्छी जीडीपी और विलासिता का लाभ दुनिया में बहुत से लोगों को नहीं मिलता, पर इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ रही है।

हर हर गंगे
Posted on 21 Jan, 2019 04:14 PM

गंगा है तो भारत है, भारत है तो गंगा। इस रिश्ते को विश्व ने भी माना है। गोमुख से गंगासागर तक गंगा नदी भारत को उसकी पहचान की कई अनूठी विरासतें देते बहती है। गंगा महोत्सव 2019 (21 जनवरी-23 जनवरी) के मौके पर आइए देखें गंगा के कुछ पड़ावों को पर्यावरणिद अनिल जोशी की नजर से

कर दो कन्यादान हिमालय,
बिटिया अब ससुराल चली

गंगा नदी
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