गांधी विचार शाश्वत रूप से प्रवाहमय हैं। उनके अनुरूप आचरण की आवश्यकता आज जितनी है, उतनी इसके पहले कभी नहीं थी। गांधीजी ने सन् 1920 में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की और जीवनपर्यंत इसके कुलपति बने रहे। इस वर्ष विद्यापीठ का दीक्षांत उद्बोधन गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र ने दिया। उनका संबोधन हमें अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के बारे में सोचने को बाध्य करता है। खासकर शिक्षा व सामाजिक नजरिए के परिप्रेक्ष्य से। अनुपम जी जिस सहजता से सामाजिक विरोधाभासों को हमारे सामने रखते हैं वह वास्तव में अभिनव है। दो किश्तों में प्रकाशित उनके दीक्षान्त उद्बोधन का यह पहला भाग है।
पहले दो शब्द अपने बारे में। फिर दो शब्द आज के इस भव्य और पुनीत समारोह के बारे में और फिर दो शब्द हमारे आसपास बन गई, खड़ी हो रही एक नई-सी दुनिया के बारे में। इस दुनिया से न तो हम ठीक से जुड़ पा रहे हैं और न इससे पूरी तरह अलग हो पाते हैं। हम त्रिशंकु की तरह अधर में लटके रह जाते हैं। अधर की यह अटकन हमें बहुत सालती है, तंग करती रहती है। इसलिए इसे भी थोड़ा समझने की कोशिश करेंगे।तो इस तरह दो-दो-और दो-कुल छह शब्द ही तो होंगे। पर होंगे कुछ हजार शब्द! यह कैसा जोड़ है? यह कैसा गणित है? यह गणित थोड़ी-सी नई पढ़ाई पढ़ गए संसार का गणित है और उसे यह गणित खूब भाता है, पसंद आता है। वह अपने छोटे-छोटे प्रायः ओछे-ओछे कामों का बखान खूब जोर शोर से करता है और अपनी छोटी-सी दुनिया के अलावा जो एक बहुत बड़ा संसार है, उसके बड़े-बड़े कामों को एक तो जोड़ता तक नहीं, जोड़े भी तो जोड़ का परिणाम बहुत कम करके आंकता है। यह गणित गांधीजी को जरा भी पसंद नहीं था।
तो पहले दो शब्द अपने बारे में। वह भी इसलिए नहीं कि मुझे अपना कुछ बखान बढ़ा चढ़ाकर करना है। एकदम साधारण जीवन। न तो आज की आधुनिक पढ़ाई पढ़ी और न बुनियादी तालीम से कुछ सीखने-समझने का मौका मिला। मामूली-सी उपाधि, डिग्री। वह भी साधारण से नंबरों वाली। इतनी मामूली कि उसे दीक्षांत समारोह में जाकर लेने की भी हिम्मत नहीं हुई। वह उसी विश्वविद्यालय में कहीं सुरक्षित रखी होगी या क्या पता अब तक कूड़े में, पस्ती में, रद्दी में बेच दी होगी।
अब दो शब्द आपके इस पुनीत समारोह के बारे में।
आज का यह उत्सव आपके जीवन का एक नया मोड़ है। दीक्षांत यानी दीक्षा का अंत। लेकिन मेरा विनम्र निवेदन है कि वास्तव में आज से आपकी दीक्षा का प्रारंभ होने जा रहा है। इसलिए इस दीक्षांत समारोह को अब दीक्षारंभ समारोह मानें। गुजराती में इसका नाम बहुत अच्छा है- पदवीदान। वैसे देखा जाए तो आपको यह पदवी दान में नहीं मिल रही। इसे तो आपने अपने श्रम से, बौद्धिक श्रम से अर्जित किया है। पर मैं पदवीदान का शाब्दिक अर्थ नहीं ले रहा। उसका एक अर्थ यह भी है कि जो पदवी आपने अर्जित की है, अब आज यहां से बाहर निकलने पर उस पदवी का आप समाज में दान करें। यानी जो ज्ञान आपने अर्जित किया है, अब उसे आप समाज में उनके बीच बांटने निकलें, जो कई कारणों से ऐसा ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते थे। यह ज्ञान आपके लिए ऐसा रामरतन बन जाना चाहिए कि जिसका जितना उपयोग आप करेंगे, वह उतना ही बढ़ता जाए, कभी कहीं भी कम न हो।
विद्यापीठ की स्थापना के समय सन् 1920 में गांधीजी ने यहीं पर जो पहला भाषण दिया था, उसमें उन्होंने कहा था कि इसकी स्थापना हेतु केवल विद्यादान नहीं है, विद्या देना नहीं है। विद्यार्थी के लिए गुजारे का साधन जुटाना भी एक उद्देश्य है। इस वाक्य को पूरा करते ही उन्होंने आगे के वाक्य में कहा था कि इसके लिए मैं जब इस विद्यापीठ की तुलना दूसरी शिक्षण संस्थाओं से करता हूं तो मैं चकरा जाता हूं। उन्होंने इस विद्यापीठ की तुलना उस समय के बड़े माने गए, बड़े बताए गए दूसरे विद्यालयों से करते हुए एक भिन्न अर्थ में इसे अणुविद्यालय, एक लघु यानी छोटा-सा विद्यालय कहा था। यहां के मुकाबले दूसरी संस्थाओं में ईंट-पत्थर, चूना कहीं ज्यादा लगा था- ऐसा भी तब गांधीजी ने कहा था । लेकिन इस मौके पर हम यह दुहरा लें कि अणु दिखता छोटा सा ही है पर उसके भीतर ताकत तो अपार होती है।
लेकिन अभी उस अणु की शक्ति और ईंट-पत्थर, चूने की बात यहीं छोड़ें। वापस लौटें गुजारे के साधन पर। तब गांधीजी चकरा गए थे। आज होते तो वे न जाने कितना ज्यादा चकरा जाते। आज तो इसी शहर में ऐसी अनेक शिक्षण संस्थाएं हैं, जिनमें पदवीदान से पहले ही, उपाधि हाथ में आने से पहले ही 2-5 लाख रुपए की पगार हर महीने मिल सके- ऐसी नौकरी उन छात्रों की गोद में डाल दी जाती है।
ऐसी वैभवशाली नौकरियों की तरफ लालच भरी निगाह से देखेंगे, और पता चलेगा कि वैसी पगार तो हमें मिलने नहीं वाली तो हमें निराशा हो सकती है। एक आशंका यह भी है कि ये अंगूर हमें ‘खट्टे’ लगें। पर एक तीसरा रास्ता है। वैसी नौकरियों और उससे जुड़े एक छोटे से संसार का पूरे विवेक के साथ विश्लेषण करें, अच्छी तरह से उसकी पड़ताल करें तो हममें सबको न सही, कुछ को तो यह लगेगा ही कि यह सुनहरा-सा दिखने वाला रास्ता जरूरी नहीं कि हमें खूब सुख और खूब संतोष की तरफ ले जाए।
यह रास्ता पश्चिम के देशों, अमीर मान लिए गए जिन देशों के जिस मिट्टी, पत्थर और डामर से बना है, उसकी मजबूती की कोई पक्की गारंटी नहीं है। पिछले दो-पांच वर्षों में आप सबने देखा ही है कि समृद्धि की सबसे आकर्षक चमक दिखाने वाले अमेरिका जैसे देश भी भयानक मंदी के शिकार हुए हैं और वहां भी इस अर्थव्यवस्था ने गजब की तबाही मचाई है। अमेरिका के बाद ग्रीस, स्पेन भी भयानक मंदी में डूबे हैं। उधारी की अर्थव्यवस्था में डूबे इन सभी देशों को तारने के लिए किफायत की लाईफ जैकट नहीं फेंकी गई है। उन्हें तो विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे बड़े महाजनों ने और उधार देकर बचाना चाहा है।
हम सब प्रायः यहां साधारण घरों से ही आते हैं। हमारे मां-पिता ने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसे बचाए होंगे, ताकि हम पढ़-लिख कर कुछ बन जाएं और उनके कंधों पर जो घर का बड़ा भार टिका है, उसे थोड़ा ही सही, हल्का करें। इसलिए यहां से निकल कर कोई ठीक नौकरी मिले तो अच्छा ही होगा। पर मैं आप सबसे एक छोटा-सा निवेदन करूंगा, इस विषय में।
हिंदी में और गुजराती में भी दो शब्द हैं- एक नौकरी दूसरा शब्द है चाकरी। नौकरी कीजिए आप जीविका के लिए पर जो भी काम करें उसमें अपना मन ऐसा उंडेल दें कि वह काम आपका खुद का काम बन जाए- किसी दूसरे के लिए किया जाने वाला काम नहीं बने। नौकरी में चाकरी का भाव जितना सध सकेगा आपसे, उतना आनंद आने लगेगा और तब आप उसे केवल पैसे के तराजू पर तोलने के बदले संतोष के तराजू पर तोलने लगेंगे- यह साधना थोड़ी-सी आगे बढ़ी नहीं कि फिर आपको इस तराजू की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। आप तोलने वाले सारे बांट भी फेंक देंगे।
विद्यापीठ बनी सन् 1920 में। इस तरह यह आज हमें काफी पुरानी लगेगी। पर देश में दो और पुरानी विद्यापीठों का मैं कुछ उल्लेख आपके सामने करना चाहूंगा। उनकी उमर देखेंगे तो यह विद्यापीठ एकदम ताजी, आज की लगेगी।
हमारे सुनहरे बताए गए इतिहास में एक विद्यापीठ थी नालंदा और दूसरी थी तक्षशिला। संस्कृत के विद्वान इनके नामों का जो भी अर्थ निकालें, वे जानें। पर इन विद्यापीठों के आसपास रहने वालों ने इनके नामों को अपने हिसाब से सरल कर देखा था- ना-अलम-दा- यानी कम मत देना। ज्ञान कम मत देना। हम तुम्हारी इस विद्यापीठ नालंदा में आए हैं तो हमें खूब ज्यादा से ज्यादा ज्ञान देना।
दूसरी विद्यापीठ का अर्थ है तक्ष यानी तराशना, शिला यानी पत्थर, या चट्टान। अनगढ़ पत्थर में से यानी साधारण से दिखने वाले पत्थर में थे, शिक्षक, अध्यापक अपने सधे हाथों से, औजारों से एक सुंदर मूर्ति तराश कर निकालें। मामूली से छात्र को एक उपयोगी, संवेदनशील नागरिक के रूप में तराश कर उसके परिवार और समाज को वापस करें।
पुस्तकः महासागर से मिलने की शिक्षा | |
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गौना ताल : प्रलय का शिलालेख (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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परिचय - श्री अनुपम मिश्र जाने माने पर्यावरणविद् हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी मार्ग (हिंदी) के सम्पादक हैं। हाल ही में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किए गए हैं।
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