अनपढ़, असभ्य और अप्रशिक्षित

traditional water system
traditional water system

केवल पाईप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। उस समय तो शायद नहीं लेकिन आजादी के बाद यह बात समझ में आने लगी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और वहां नये मोहल्ले, बाजार, स्टेडियम खड़े हो गये थे। पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गये मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और वर्षा बीती नहीं कि शहरों में जल संकट छाने लगता है। शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं चाहिए।

गांव में तकनीकी भी बसती है यह बात सुनकर समझ पाना उन लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल होता है जो तकनीकी को महज मशीन तक सीमित मानते हैं लेकिन तकनीकी क्या वास्तव में सिर्फ मशीन तक सीमित है? यह बड़ा सवाल है जिसके फेर में हमारी बुद्धि फेर दी गई है। मशीन, कल पुर्जे, औजार से भी आगे अच्छी सोच सच्ची तकनीकी होती है। अच्छी सोच से सृष्टिहित का जो लिखित और अलिखित शास्त्र विकसित किया जाता है उसके विस्तार के लिए जो कुछ इस्तेमाल होता है वह तकनीकी होती है। इस तकनीकी को समझने के लिए कलपुर्जे के शहरों से आगे गांवों की ओर जाना होता है। भारत के गांवों में वह शास्त्र और तकनीकी दोनों ही लंबे समय से विद्यमान थे, लेकिन कलपुर्जों की कालिख ने उस सोच को दकियानूसी घोषित कर दिया और ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल करने वाले लोग अनपढ़, असभ्य और अप्रशिक्षित घोषित कर दिये गये।साल 2010 का ग्रामीण तकनीकी के अध्ययन और विस्तार पर जमनालाल बजाज पुरस्कार पाने वाले अनुपम मिश्र का यह लेख जन और तकनीकी दोनों को समझने में हमारी मदद करता है।

पानी का प्रबंध, उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य बोध के विशाल सागर की एक बूंद थी। सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े थे। बूंदे अलग हो जाएं तो न सागर रहे न बूंद बचे। सात समंदर पार से आये अंग्रेजों को समाज के कर्तव्य बोध का न तो विशाल सागर दिख पाया और न उसकी बूंदे। उन्होंने अपने यहां के अनुभव व प्रशिक्षण के आधार पर यहां के राज में दस्तावेज जरूर खोजने की कोशिश की लेकिन वैसे रिकार्ड राज में नहीं रखे जाते थे। इसलिए उन्होंने मान लिया कि सारी व्यवस्था उन्हें ही करनी है। यहां तो कुछ है ही नहीं। देश के अनेक भागों में घूम-फिरकर अंग्रेजों ने कुछ या काफी जानकारियां जरूर एकत्र की लेकिन यह सारा अभ्यास कुतुहल से ज्यादा नहीं था। उसमें कर्तव्य के सागर और उसकी बूंदों को समझने की दृष्टि नहीं थी। इसलिए विपुल मात्रा में जानकारियां इकट्ठी करने के बाद भी जो नीतियां बनीं उन्होंने इस सागर को बूंद से अलग कर दिया। उत्कर्ष का दौर भले ही बीत गया था पर अग्रेजों के बाद भी पतन का दौर प्रारंभ नहीं हुआ था। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ तक अंग्रेज यहां घूमते-फिरते थे और जो कुछ देख-लिख रहे थे उससे उनका गजेटियर तैयार हो रहा था। इस गजेटियर में कई जगहों पर छोटे ही नहीं बड़े-बड़े तालाबों पर चल रहे काम का उल्लेख मिलता है। मध्य प्रदेश के दुर्ग और राजनंदगांव जैसे क्षेत्रों में सन् 1907 तक भी 'बहुत से बड़े तालाब' बन रहे थे। इनमें तांदुला नामक तालाब 'ग्यारह वर्षों तक लगातार काम करने के बाद अभी तैयार ही हुआ था। इसमें सिंचाई के लिए निकली नहर नालियों की लंबाई 513 मील थी।'

जो नायक समाज को टिकाये रखने के लिए यह सब काम कर रहे थे उनमें से कुछ के मन में समाज को डिगाने-हिलाने वाली नयी व्यवस्था कैसे समा पाती? उनकी तरफ से अंग्रेजों को चुनौतियां भी मिलीं। सांसी और भील जैसी स्वाभिमानी जातियों को इसी टकराव के कारण अंग्रेजी राज ने ठग और अपराधी करार दे दिया। अब जब सब कुछ अंग्रेजों को ही करना था तो पहले के ढांचों को तो टूटना ही था। उस ढांचे को दुत्कारना, उसकी उपेक्षा करना कोई बहुत सोचा-समझा कुटिल षड़यंत्र नहीं था। वह तो इस नयी दृष्टि का सहज परिणाम था और दुर्भाग्य से वह 'नई दृष्टि' समाज के उन लोगों तक को भा गयी जो पूरे मन से अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे। उस नये राज और उसके प्रकाश के कारण चमकी नयी संस्थाएं, नये आंदोलन भी अपने ही नायकों के शिक्षण प्रशिक्षण में अंग्रेजों से भी आगे बढ़ गये। आजादी के बाद की सरकारों, सामाजिक संस्थाओं तथा ज्यादातर आंदोलनों में भी यही लज्जाजनक प्रवृत्ति जारी रही है।

दूरी एक छोटा सा शब्द है लेकिन राज और समाज के बीच इस शब्द के आने से समाज का कष्ट कितना बढ़ जाता है इसका कोई हिसाब नहीं। फिर जब यह दूरी एक तालाब की नहीं सात समंदर की हो जाए तो बखान के लिए क्या रह जाता है? अंग्रेज सात समंदर पार से आये थे और अपना अनुभव लेकर आये थे। वहां वर्गों पर टिका समाज था जहां स्वामी और दास के संबंध थे। वहां राज्य ही फैसला करता था कि समाज का हित किसमें है। यहां जाति का समाज था और राजा जरूरी थे। पर राजा और प्रजा के संबंध अंग्रेजों के अपने अनुभवों से बिल्कुल भिन्न थे। यहां समाज अपना हित स्वयं तय करता था। और उसे अपनी शक्ति से, अपने संयोजन से पूरा करता था। राजा उसमें सहायक होता था। पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अब अकुशल कारीगर में बदल दिये गये थे। ऐसे बहुत से लोग जो गुणीजनखान की सूची में थे वे अब अनपढ़, असभ्य, अप्रशिक्षित माने जाने लगे। उसी गुणी समाज के हाथ से पानी का प्रबंध किस तरह से छीना गया इसकी एक झलक तब के मैसूर राज्य में देखने को मिलती है। सन 1800 में मैसूर राज्य दीवान पूर्णैया देखते थे। तब राज्य भर में 39 हजार तालाब थे। राज बदला। अंग्रेज आये। सबसे पहले उन्होंने इस 'फिजूलखर्ची' को रोका और सन 1831 में राज की ओर से तालाबों को दी जाने वाली राशि को काटकर आधा कर दिया। अगले 32 साल तक नये राज की कंजूसी को समाज अपनी उदारता से ढकता रहा। तालाब लोगों के थे इसलिए मदद कम हो जाने के बाद भी समाज तालाबों को संभाले रहा। बरसों पुरानी स्मृति ऐसे ही नहीं मिट जाती लेकिन फिर 32 साल बाद यानी 1863 में वहां पहली बार पीडब्ल्यूडी बना और सारे तालाब लोगों से छीनकर उसे सौंप दिये गये।

प्रतिष्ठा पहले ही हर ली थी। अब स्वामित्व भी ले लिया गया था। सम्मान सुविधा और अधिकारों के बिना समाज लाचार होने लगा था। ऐसे में उससे सिर्फ अपना कर्तव्य निभाने की उम्मीद कैसे की जाती? मैसूर के 39 हजार तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नयी राजधानी बन चली थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहां 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के हानि-लाभ के तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब को पलड़े से बाहर फेंक दिया गया। उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। इसका विरोध हुआ था जिसकी सुरीली आवाज विवाह गीतों या गारियों में दिखती है। जब बाराती की पंगत खाने बैठती तो स्त्रियां 'फिरंगी नल मत लगवाई लियो रे' गातीं। लेकिन नल लगाए गये और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित 'वाटर वर्क्स' से पानी आने लगे। पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ आज अकुशल कारीगर में बदल चुके हैं। ऐसे बहुत से गुणीजनखान अब अनपढ़, असभ्य और अप्रशिक्षित माने जाने लगे हैं।

पहले सभी बड़े शहर और फिर छोटे शहर और गांव में भी यह स्वप्न साकार किया जाने लगा। पर केवल पाईप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। उस समय तो शायद नहीं लेकिन आजादी के बाद यह बात समझ में आने लगी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और वहां नये मोहल्ले, बाजार, स्टेडियम खड़े हो गये थे। पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गये मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और वर्षा बीती नहीं कि शहरों में जल संकट छाने लगता है। शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं चाहिए। मद्रास जैसे कुछ शहरों का अनुभव यही बताता है कि लगातार गिरता जलस्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर नहीं थामा जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाले पानी को शहर तक ले आने की बेहद खर्चीली व्यवस्था भी बना रखी है।

इंदौर का ऐसा ही उदाहरण आंख खोल सकता है। यहां दूर बह रही नर्मदा का पानी लाया गया था। योजना का पहला चरण छोटा पड़ा तो एक स्वर से दूसरे चरण की मांग भी उठी और 1993 में तीसरे चरण के लिए भी आंदोलन चला। इसमें कांग्रेस, भाजपा, साम्यवादी दलों के अलावा शहर के पहलवान श्री अनोखीलाल भी एक पैर पर एक ही जगह खड़े रहकर 'सत्याग्रह' किया। इसी इंदौर में अभी कुछ ही दिनों पहले तक बिलावली जैसा तालाब था जिसमें फ्लाईंग क्लब का जहाज गिर जाने पर नौसेना के गोताखोर उतारे गये थे पर वे डूबे जहाज को आसानी से खोज नहीं पाये थे। आज बिलावली बड़ा सूखा मैदान है और इसमें फ्लाईंग क्लब के जहाज उड़ाये जा सकते हैं।

पानी के मामले में निपट बेवकूफियों के उदाहरण भरे पड़े हैं। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई 600 बरस पहले लाखा बंजारे द्वारा बनाये गये सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर हो गया। आज यहां नये समाज की पांच बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाएं हैं। जिले और संभाग के मुख्यालय हैं। पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र है और सेना के महार रेजिमेंट का मुख्यालय है, नगरपालिका है और सर हरिसिंह गौर के नाम पर बना विश्वविद्यालय है। एक बंजारा यहां आया और एक विशाल सागर बनाकर चला गया लेकिन नये समाज की ये साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं। आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध हो चुके हैं पर अनपढ़ माने गये बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।

उपेक्षा की इस आंधी में कई तालाब फिर भी खड़े हैं। देश भर में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों को भी बांट रहे हैं। छत्तीसगढ़ के गांवों में आज भी छेरा-छेरा के गीत गाये जाते हैं। और उससे मिले अनाज से तालाबों की टूट-फूट ठीक की जाती है। आज भी बुंदेलखण्ड में कजलियों के गीत में आठों अंग डूबने की कामना की जाती है। हरियाणा के नारनौल में जात उतारने के बाद माता-पिता तालाब की मिट्टी काटते हैं और पाल पर चढ़ाते हैं। न जाने कितने शहर और कितने गांव आज भी इन्हीं तालाबों के कारण टिके हुए हैं। बहुत सी नगरपालिकाएं आज भी इन्हीं तालाबों पर टिकी हुई हैं और सिंचाई विभाग इन्हीं के दम पर खेतों को पानी दे रहा है। अलवर जिले की बीजा की डाह जैसे अनेक गांवों में आज भी सागरों के नये नायक वही तालाब भी खोद रहे हैं और पहली बरसात में उन पर रात-रात भर पहरा दे रहे हैं। उधर रोज सुबह-शाम घड़सीसर में आज भी सूरज मन भर सोना उड़ेलता है।

कुछ कानों में आज भी यह स्वर गूंजता है
'अच्छे-अच्छे काम करते जाना।
 

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