संजय तिवारी

संजय तिवारी
नलगोंडा का नायक
Posted on 25 Aug, 2017 10:37 AM

करिंगू अजय सिर्फ चौदह साल के हैं लेकिन खेलने कूदने की इस उम्र में उनका शरीर एक जिन्दा लाश बनकर रह गया है। फ्लोरोसिस नामक जहरीली बीमारी ने उनके शरीर को एक गठरी बनाकर रख दिया है। उनके शरीर पर तकिया बाँधकर रखा जाता है ताकि हड्डियों का दर्द उन्हें कम तकलीफ दे। उन्हीं के पड़ोस की उन्नीस साल के वीरमाला राजिता की हड्डियाँ इस तरह से मुड़ गयी हैं कि वो मुश्किल से जमीन पर रेंगकर चल पाती हैं। राजिता कहती हैं, “मेरा कोई जीवन नहीं है। मैं हर समय घर पर रहती हूँ। कहीं जा नहीं सकती। बड़े लोग घर पर आते हैं जिनमें नेता और फिल्मी हस्तियाँ सभी शामिल हैं लेकिन मदद कोई नहीं करता। सब सहानुभूति दिखाकर चले जाते हैं।”

कांचुक्तला सुभाषराजिता और अजय की यह दर्दभरी कहानी न इकलौती है और न ही आखिरी। तेलंगाना के नलगोंडा जिले में सदियों से हड्डियों की यह चीख पुकार जारी है। इन्हीं दर्दभरी पुकारोंं में एक आवाज कंचुकटला सुभाष की भी है। अधेड़ हो चुके सुभाष के तन पर तो फ्लोरोसिस नामक घातक बीमारी का कोई असर नहीं है लेकिन उनके मन और जीवन पर फ्लोराइड का गहरा असर हुआ है।

शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं-अनुपम मिश्र
Posted on 19 Dec, 2016 12:56 PM

अनुपम मिश्र पानी और पर्यावरण पर काम करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनकी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब के साथ उन्होंने एक ऐसा प्रयोग किया जिसका दूरगामी दृष्टि दिखती है। उन्होंने अपनी किताब पर किसी तरह का कापीराईट नहीं रखा। इस किताब की अब तक एक लाख से अधिक प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। मीडिया वर्तमान स्वरूप और कापीराईट के सवाल पर हमने विस्तृत बात की। यहां प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश-

कापीराईट को लेकर आपका नजरिया यह क्यों है कि हमें अपने ही लिखे पर अपना दावा (कापीराईट) नहीं करना चाहिए?
कापीराईट क्या है इसके बारे में मैं बहुत जानता नहीं हूं। लेकिन मेरे मन में जो सवाल आये और उन सवालों के जवाब में मैंने जो जवाब तलाशे उसमें मैंने पाया कि आपका लिखा सिर्फ आपका नहीं है।

अनुपम मिश्र
सूखे की मार से पसरता पलायन
Posted on 17 Jun, 2016 04:46 PM

तपती दोपहरी में सराय काले खाँ बस अड्डा, बुन्देलखण्ड से आने वाले किसानों के लिये नया आशियाना बना हुआ है। यहाँ कई परिवार एक साथ काम की तलाश में बुन्देलखण्ड के गाँव-देहात से आ बसे हैं। बुन्देलखण्ड में सूखे के चलते लाखों की संख्या में किसान लगातार पलायन कर रहे हैं और काम के जुगाड़ में फिलहाल सराय काले खाँ के फ्लाईओवर के नीचे ही ये परिवार दिन गुजार रहे हैं। यहीं चूल्हे पर खाना बनता है और यहीं अंगो
सोलर दिल्ली
Posted on 01 May, 2013 10:31 AM
दिल्ली में बिजली आपूर्ति शायद देश में सबसे अच्छी अवस्था में है। ऐसा इसलिए भी कि दिल्ली की राजधानी है और राजधानियों को बाकी देश के मुकाबले प्राथमिकता पर रखा ही जाता है। गर्मियों में प्रतिदिन पांच हजार मेगावाट तक की खपत करनेवाली दिल्ली को बिजली की किल्लत उतनी नहीं होती जितनी पूरे देश को होती है। फरवरी 2013 में देश में कुल ऊर्जा उत्पादन का औसत 2 लाख 14 हजार मेगावाट था। इसमें अगर अकेले 5 हजार मेगावाट
गरीब पर गिरेगी अमीर के अय्याशी की गाज
Posted on 04 Nov, 2011 03:24 PM

औद्योगिक इकाईयों की स्थापना और उसमें उत्पादन को सुचारू करने के लिए जिस भारी मात्रा में हमें उर्जा चाहिए थी उसके लिए परंपरागत स्रोत से काम नहीं चल सकता था। उस वक्त की तकनीकि ने जो विकल्प प्रस्तुत किया वह मुख्य तौर पर जीवाश्म ईंधन पर आधारित था। यह जीवाश्म ईंधन कोयला और तेल के रूप में प्राप्त किया गया और औद्योगिक उत्पादन से लेकर परिवहन तक हर जगह उर्जा के इन्हीं दो प्रारूपों को आधार बनाकर तकनीकि विकसित की गई।

हैती, बांग्लादेश, जिम्बाबवे, सियरा लियोन, मेडागास्कर कोई ऐसे देश नहीं हैं जिन्हें अमीर या सुविधाभोगी कहा जा सके लेकिन ये वो देश हैं जो अगले एक दशक में बिगड़ते पर्यावरण की सबसे भीषण मार झेंलेगे। बांग्लादेश की राजधानी ढाका हो या फिर भारत का कोलकाता सब पर बाढ़ और चक्रवात का खतरा मंडरा रहा है। इन सबमें सबसे बड़ा खतरा बैंकाक को है। थाइलैण्ड के इस शहर के कई हिस्से बाढ़ के कारण अगले कुछ सालों में बर्बाद हो सकते हैं। यह सब उथल पुथल होगी पर्यावरण में हो रहे बदलाव के कारण। पश्चिम से जिस औद्योगिक विकास ने पूरब में पैर पसारा था उसी पश्चिम ने क्लाइमेट चेंज की चाभी जेब से निकाली और ताला खोलकर बोलना शुरू किया कि देखो दुनिया का पर्यावरण कैसे बिगड़ रहा है? जिस रिपोर्ट के हवाले से यह खबर आई है कि पर्यावरण में होने वाले बदलाव के कारण दुनिया के सर्वाधिक गरीब देश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे वह लंदन की एक रिसर्च संस्था है मेपलक्राफ्ट। मेपलक्राफ्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक के लिए ठेके पर रिसर्च करती है और अपने शोध के लिए विश्वसनीय होने का दावा करती है।

बाढ़ की बिरुदावली
Posted on 03 Oct, 2011 09:47 AM

जिस बाढ़ ने इलाके की अर्थव्यवस्था को पलीता लगा दिया हो उसकी भरपाई डेढ़ करोड़ देकर पूरी नहीं की

‘आज भी खरे हैं तालाब’ का दीवाना फरहाद
Posted on 27 Mar, 2012 04:44 PM
‘आज भी खरे हैं तालाब’ का पहला संस्करण कोई अट्ठारह बरस पहले आया था। तब से अब तक गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली ने इसके पांच संस्करण छापे हैं। पुस्तक पर किसी तरह का कॉपीराइट नहीं रखा था। गांधी शांति प्रतिष्ठान के पांच संस्करणों के अलावा देश भर के अनेक अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, संस्थाओं, आंदोलनों, प्रकाशकों और सरकारों ने इसे अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाया है, इन अट्ठारह बरसों में। कुछ ने बताकर तो कुछ ने बिना बताए भी।

‘आज भी खरे हैं तालाब’ के कोई बत्तीस संस्करण और कुल प्रतियों की संख्या 2 लाख के आसपास छपी और बंटी।
आज भी खरे हैं तालाब
पीने का पानी
Posted on 17 Jul, 2011 11:40 AM
पीने का पानी। इस एक शब्द में क्या अतिश्योक्ति है? अगर कोई आपसे पूछे कि इस एक शब्द में आपत्तिजनक क्या है तो आप क्या कहेंगे? निश्चित रूप से इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है। पानी होता ही है पीने के लिए। फिर इसमें आपत्तिजनक क्या हो सकता है? फिर भी वह आपसे पूछे कि नहीं इसमें कुछ आपत्तिजनक है तो फिर आप क्या कहेंगे?
झूठा है खतरा, बाढ़ का प्रकोप
Posted on 12 Sep, 2010 08:59 AM

जिस भेड़िये के आने का डर दिखाकर पिछले महीने भर से हमारा मीडिया अपनी भेड़ों को हांक रहा था, उस भेड़िये की आहट आ गयी है. हरियाणा के हथिनीकुण्ड से आठ लाख क्यूसेक पानी 'छोड़' दिया गया है. दिल्ली में बाढ़ वाले हालात हैं. नहीं नहीं, मीडिया हाइप नहीं है. सच में, बाढ़ के हालात हैं. यमुना के किनारे किनारे लो लाइंग (निचले) इलाकों में पानी पसर रहा है. लेकिन रुकिए.
×