While most post independence reforms have encouraged agricultural landownership among rural women as daughters, what exists in actual practice? A study explores.
र्मीकम्पोस्ट तैयार होने में लगा समय केंचुओं की नस्ल, परिस्थितियों, प्रबन्धन तथा कचरे के प्रकार पर निर्भर करता है। वर्मीकम्पोस्ट जैसे-जैसे तैयार होती जाये उसे धीरे-धीरे एकत्र करते रहना चाहिए। तैयार खाद हटा लेने से उस क्षेत्र में वायुसंचार बढ़ जाता है जिससे केंचुआ खाद निर्माण की प्रक्रिया में तेजी आ जाती है। तैयार केंचुआ खाद हटाने में विलम्ब होने से केंचुए मरने लगते हैं और उस क्षेत्र में चीटियों के आक्रमण की सम्भावना बढ़ जाती है। केंचुआ खाद हटाने के लिए 5 से 7 दिन पहले पानी का छिड़काव बन्द कर देना चाहिए ताकि केंचुए खाद में से निकल कर नीचे की ओर चले जायें।
क्यारियों को भरने के लिए पेड़-पौधों की पत्तियाँ, घास, सब्जी व फलों के छिलके, गोबर आदि अपघटनशील कार्बनिक पदार्थों का चुनाव करते हैं। इन पदार्थों को क्यारियों में भरने से पहले ढेर बनाकर 15 से 20 दिन तक सड़ने के लिए रखा जाना आवश्यक है। सड़ने के लिए रखे गये कार्बनिक पदार्थों के मिश्रण में पानी छिड़क कर ढेर को छोड़ दिया जाता है। 15 से 20 दिन बाद कचरा अधगले रूप (Partially decomposed) में आ जाता है। ऐसा कचरा केंचुओं के लिए बहुत ही अच्छा भोजन माना गया है।
केंचुओं द्वारा निरंतर जुताई व उलट पलट के कारण स्थायी मिट्टी कणों का निर्माण होता है जिससे मृदा संरचना में सुधार एवं वायु संचार बेहतर होता है जो भूमि में जैविक कियाशीलता, ह्यूमस निर्माण तथा नत्रजन स्थिरीकरण के लिए आवश्यक है।
केंचुए को कृषकों का मित्र तथा भूमि की आँत भी कहा जाता है, जो जीवांश से भरपूर एवं नम भूमि में पर्याप्त संख्या में रहते है। नम भूमियों में केंचुओं की संख्या पचास हजार से लेकर चार लाख प्रति हेक्टेयर तक आंकी गई है। केंचुए जमीन में 50 से 100 से.मी. की गहराई में विद्यमान जीवाशं युक्त मिट्टी को खाकर, मृदा एवं खनिजों को भूमि की सतह पर हगार के रूप में विसर्जित करते है। इस हगार में पोषक तत्व भरपूर मात्रा में रहते है। रसायनों के लगातार उपयोग एवं कार्बनिक पदार्थों को मृदा में न डालने के कारण इनकी संख्या में कमी का होना स्वाभाविक है।
आत्मनिर्भर भारत का मार्ग आत्मनिर्भर गाँवों के संकल्प से निर्धारित होता है। अतीत में आत्मनिर्भर गाँवों का सिद्धांत ही भारत को 'सोने की चिड़िया' कहने का मुख्य कारण था। परंतु उपनिवेशवादी नीतियों ने आत्मनिर्भर गाँवों के संकल्प को तहस- नहस कर दिया। कालांतर में कृषि लाभ में निरंतर कमी, बेहतर रोजगार की व्यवस्था, आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता, जीवन के लिए भौतिक सुविधाओं की सुलभता, आधुनिक सुख-सुविधाओं आदि की कमी ने ग्रामीण आत्मनिर्भरता को गाँवों से विवर्तित करके भारतीय शहरों में स्थापित कर दिया था।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान विभाग (डीएसआईआर) के अंतर्गत कार्यरत भारत सरकार के उद्यम सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (सीईएल) द्वारा 20 दिनों के रिकॉर्ड समय में पल्ली में ग्राउंड माउंटेड सोलर पॉवर (जीएमएसपी) संयंत्र स्थापित किया गया है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक खाद्य प्रणाली को, पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाए बिना, 2050 तक 9 अरब से अधिक लोगों का भरण-पोषण करने में सक्षम होना चाहिए और ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि एक सक्षम और सतत खाद्य उत्पादन प्रणाली विकसित करने का प्रयास किया जाए। साथ ही, ग्रामीण समुदाय बाजार की दुर्गमता, बढ़ती आबादी, जनसंख्या में कमी और अपर्याप्त सार्वजनिक सेवाओं जैसे मुद्दों से जूझ रहे हैं जो सतत खाद्य उत्पादन को प्रभावित कर सकते हैं। इसी के मद्देनजर, 'डिजिटलीकरण' एक समाधान के रूप में उभरा है जो कृषि संसाधन दक्षता में सुधार और ग्रामीण सेवाओं को समृद्ध कर रहा है। यह अवधारणा संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के भी अनुरूप है जो गरीबी, खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन जैसे परस्पर जुड़े मुद्दों का समाधान करके ग्रामीण क्षेत्रों में प्रगति को बढ़ावा दे रही है।
उत्तराखंड जो अपनी प्राकृतिक सुन्दरता से सभी को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है. विगत कई वर्षो से वृक्षों की आक्रामक प्रजातियों की बढ़ती संख्या को अनदेखा करता रहा, परंतु अब यही आज राज्य के लिए चिन्ता का विषय बनते जा रहे हैं. इन प्रजातियों से न केवल राज्य में वनों को वरन् वन्य जीवों को भी नुकसान हो रहा है. राज्य में वनों का अस्तित्व देखा जाए तो 40-50 वर्ष पूर्व राज्य में बाज, उतीस, खड़िग, भीमल, क्वैराल, पदम, काफल, बेडू जैसी प्रजातियों के जंगल हुआ करते थे,
प्रौद्योगिकी उन्नयन और समावेशी विकास ग्रामीण भारत के विकास के केंद्र बिंदु रहे हैं। देश की प्रयोगशालाओं में विकसित प्रौद्योगिकियां आत्मनिर्भर गाँवों के लिए तकनीकी सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। आज प्रौद्योगिकी को समाज और गाँव केंद्रित बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। आधुनिक प्रौद्योगिकी के सामंजस्य और खेतों तक पहुँच से बेहतर कृषि उत्पादकता, सामाजिक-आर्थिक समानता और सतत विकास को सुनिश्चित किया जा रहा है। ग्रामीण आत्मनिर्भरता, तकनीकी समझ और कृषि प्रौद्योगिकी से लेकर कौशल विकास की परिभाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ देश के गाँवों में सृजित हो रही है। भारत में करीब साढ़े छह लाख गाँव है, छह हजार से अधिक ब्लॉक हैं, और सभी पंचायती राज प्रणाली द्वारा शासित हैं।
कम्प्यूटर के द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि घूमने वाली रैकों में उगने वाले प्रत्येक पौधे को एकसमान ही प्रकाश की प्राप्ति हो इसमें इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि पानी के पम्पों से पोषक तत्वों का वितरण एकसमान रूप से हो किसान अपने स्मार्ट फोन से सम्पूर्ण बहुमंजिला खेत की देखभाल कर सकते हैं.
बांध को हटाने की योजना बनाते समय यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि इसकी कुछ लागत तो आएगी ही। साथ ही नदी के पारिस्थितिकी तंत्र के प्रभावित होने की संभावना भी रहेगी
जल शक्ति मंत्रालय की संसदीय समिति ने मार्च 2023 की 20वीं रिपोर्ट में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग से भारत में बांधों और सम्बंधित परियोजनाओं के व्यावहारिक जीवनकाल और प्रदर्शन का आकलन करने की व्यवस्था को लेकर सवाल किया था।
आधुनिक कृषि विज्ञान, पौधों में संकरण, कीटनाशको, रासायनिक उर्वरकों और तकनीकी सुधारों ने फसलों से होने वाले उत्पादन को तेजी से बढ़ाया है. साथ ही, यह व्यापक रूप से पारिस्थितिक सन्तुलन के लिए क्षति का कारण भी बना है। इससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव के साथ-साथ फसल उत्पादकता भी स्थिर है।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक भारतीय केंचुए वर्मी कंपोस्ट तैयार करने की बजाय जमीन में घुसकर मिट्टी भुरभुरी करते हैं। ऑस्ट्रेलिया के आइसीबिया की डीडा व भूडीयन मदिनी प्रजाति की मादा केंचुआ हर दो महीने में 60 अंडे देती है।
पशुओं के लिये उचित भोजन वह है जो स्थूल, रूचिकर, रोचक, भूखवर्धक और संतुलित हो और इसमें पर्याप्त हरे चारे मिले हो, उसमें रसीलापन मिला हो और वह संतुष्टि प्रदान करने वाला हो। पशुओं को आमतौर पर दिन में थोड़े-थोड़े समय के अंतर पर 3 बार भोजन देना चाहिए
वर्तमान में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट प्रतिदिन आठ से नौ मिलियन लीटर गंदा पानी फिल्टर करने के बाद सईनदी में छोड़ता है। दूसरी ओर तीन नालों का करीब पांच से छह मिलियन लीटर गंदा पानी सीधे नदी में गिर रहा है। नतीजा सई नदी अब भी प्रदूषण से कराह रही है।
हर वर्ष एक हजार जलश्रोत अपना वजूद खो रहे हैं। बीते दशकों से सूखे की मार झेलता बुंदेलखंड भी इससे अछूता नहीं है। वहां 9000 से भी अधिक तालाब थे। बीते 30-40 सालों में बचे 3294 तालाबों में से 02 हजार से ज्यादा तालाबों का तो अस्तित्व ही मिटगया है।