केंचुआ खाद (Vermi-Compost)

केंचुआ खाद (Vermi-Compost)
केंचुआ खाद (Vermi-Compost)

खाद्यान्नों की बढ़ती माँग के कारण सघन खेती आज कृषि की बड़ी आवश्यकता बन गई है। अच्छे बीज, पर्याप्त जल संसाधन के अतिरिक्त संतुलित खाद सघन खेती का मुख्य अंग है। रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते प्रयोग से मृदा की संरचना, उसके पानी रोकने की क्षमता तथा उसमें पाये जाने वाले लाभदायक जीवाणुओं का ह्रास होता है। जिससे उसकी उर्वता शक्ति घट जाती है, इन सब गुणों को सुरक्षित रखने के लिए खेती मे कार्बनिक खादों का उपयोग अति आवश्यक है। पशुओं से प्राप्त होने वाली गोबर की खाद की तुलना में वर्मी कम्पोस्ट में 5 गुना नाइट्रोजन, 7 गुना फास्फोरस, 11 गुना पोटाश, 2 गुना मैगनीशियम, 2 गुना कैल्शियम तथा 7 गुना एक्टीनोमाइसिट्स होता है। केचुओं के पेट मे जो जीवाणु होते है इनमें से एक गोंदनुमा पदार्थ निकलता है जो कि कुछ घुले कणों को सख्त बनाता है, ये घुले कण भारी जमीन को नरम बनाते है जिससे भुमि हवादार तथा पानी के निस्तारीकरण के लिए उपयोगी रहती है। इसलिए "केंचुए कृषि भूमि के लिए वरदान है"।

केंचुए को कृषकों का मित्र तथा भूमि की आँत भी कहा जाता है, जो जीवांश से भरपूर एवं नम भूमि में पर्याप्त संख्या में रहते है। नम भूमियों में केंचुओं की संख्या पचास हजार से लेकर चार लाख प्रति हेक्टेयर तक आंकी गई है। केंचुए जमीन में 50 से 100 से.मी. की गहराई में विद्यमान जीवाशं युक्त मिट्टी को खाकर, मृदा एवं खनिजों को भूमि की सतह पर हगार के रूप में विसर्जित करते है। इस हगार में पोषक तत्व भरपूर मात्रा में रहते है। रसायनों के लगातार उपयोग एवं कार्बनिक पदार्थों को मृदा में न डालने के कारण इनकी संख्या में कमी का होना स्वाभाविक है।

परिभाषा (Definition)

वर्मी कम्पोस्ट को wormi - culture या केंचुआ पालन भी कहा जाता है गोबर, सुखे एवं हरे पत्ते, घास फूस, धान का पुआल, मक्का / बाजरा की कड़वी, खेतो के अवशेषों, डेयरी / कुक्कुट अपक्षय, शहर के कूड़ा करकट इत्यादि खाकर केंचुओं द्वारा प्राप्त मल से तैयार खाद वर्मी कल्चर कहलाती है। यह केंचुओं के अण्डो व माइकोफ्लोरा का मिश्रण होता है। इनसे निकले केंचुए भूमि में सक्रिय रहते है।

केंचुओं के अवशेष / मल उनके कोकून, सभी प्रकार के लाभकारी सुक्ष्म जीवाणु, मुख्य एवं सुक्ष्म पोषक तत्व और अपचित जैविक पदार्थों का केंचुए मिश्रण वर्मी कम्पोस्ट कहलाता है। उपयुक्त तापमान, नमी हवा एवं जैविक पदार्थ मिलने पर केंचुए अपनी संख्या बढाने के साथ - साथ गोबर एवं वानस्पतिक अवशेष आदि को सड़ाकर जैविक खाद के रूप में परिवर्तित करते रहते है।

केंचुओं का वर्गीकरण (Classification of Earth-worms) भोजन की प्रकृति के आधार पर केंचुए दो प्रकार के होते हैं :

कार्बनिक पदार्थ खाने वाले (Phytophagous):

इस वर्ग के केंचुए केवल सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों को खाना पसन्द करते हैं जो मृदा कम (10%) और कार्बनिक पदार्थ ज्यादा (90%) खाते है, अतः अधिक उपयुक्त माने गए है। इन्हें खाद बनाने वाले केंचुए (Humus or Manure Farmer) कहते हैं। इसी वर्ग के केंचुए वर्मीकम्पोस्ट बनाने के काम में लाये जाते हैं। इस वर्ग में मुख्यरूप से आइसीनिया फोटिडा (Eisenia foetida) एवं यूड्रिलस यूजैनी (Eudrilus eugeniae) प्रजातियां मुख्य हैं।

मिट्टी खाने वाले (Geophagous): इस वर्ग के केंचुए मुख्यतः

मृदा को अधिक (90%) और कार्बनिक पदार्थ को कम (10%) खाते है, इन्हें (Humus Feeder) एवं हलवाहे (Ploughman) कहते हैं। इस वर्ग के केंचुए अधिकांशतः मिट्टी में गहरी सुरंग बनाकर रहते हैं। ये वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होते किन्तु खेत की जुताई करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

परिस्थितिकीय व्यूहरचना (मिट्टी में रहने की प्रवृत्ति) के अनुसार केंचुए निम्न तीन वर्गों में बांटे जा सकते हैं:

1. एपीजेइक (Epigeic):

इस वर्ग में आने वाले केंचुए प्रायः भूमि की ऊपरी सतह पर रहते हैं। ये भूमि सतह पर पड़े कूड़े-करकट आदि के सड़ते हुए ढेर में रहकर कार्बनिक पदार्थ खाते हैं। इन्हें वर्मीकम्पोस्ट वनाने के लिए उपयुक्त माना गया है। इस वर्ग के केंचुओं को सतही केंचुए (Surface Feeder) भी कहा जाता है। इनकी लम्बाई 3-4 इंच, और वजन 1/2 -1 ग्राम तक होता है, ये लाल रंग के होते है। इस वर्ग में मुख्यतः आइसीनिया फोटिडा (Eisenia foetida) एवं यूड्रिलस यूजैनी (Eudrilus eugeniae) प्रजातियां आती हैं।

2. एण्डोजैइक (Endogeic):

इस वर्ग के केंचुए भूमि की निचली परतों में रहना और भोजन के रूप में मिट्टी खाना पसन्द करते हैं। इन्हे गहरी सुरंग बनाने वाले केंचुए भी कहते है। ये प्रकाश के सम्पर्क में नही आते। इनकी लम्बाई 8-10 इंच और वजन 5 ग्राम तक होता है। इस वर्ग के केंचुए आकार में मोटे एवं रंगहीन होते हैं। ये वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होते किन्तु भूमि में वायुसंचार, कार्बनिक पदार्थों के वितरण एवं जुताई का कार्य करने में सक्षम होते हैं। इन्हें खेती का केंचुआ, कृषक मित्र एवं हलवाहे (Ploughman) के रूप में जाना जाता है। इस वर्ग के केंचुओं का जीवनकाल एवं प्रजनन दर बहुत कम होती है। इस वर्ग में मेटाफायर पोस्थूमा (Metaphire posthuma) व ऑक्टोकीटोना थर्सटोनी (Octocheatona thrustonae) प्रजातियां मुख्य हैं।
3. ऐनेसिक (Anecic): इस वर्ग के केंचुए भूमि में ऊपर से नीचे की ओर सुरंग बनाकर रहते हैं। इन्हें Deep Burrower एवं किसान मित्र कहा जाता है। भोजन के लिए ये भूमि सतह पर आते हैं और भोजन को अपने साथ सुरंग में लेजाकर भक्षण करते हैं। ये सुरंग में अपषिष्ट पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं। इस वर्ग में लेम्पीटो मारूति (Lampito mauritii) नामक प्रजाति मुख्य है।

केंचुए की कुछ महत्वपूर्ण प्रजातियों की विशेषताएँ

भारतीय उपमहाद्वीप में केंचुआ खाद बनाने हेतु केचुए की कुछ महत्वपूर्ण प्रजातियों निम्नवत् हैंः

1. आइसीनिया फोटिडा (Eisenia foetida)

  •  आइसीनिया फोटिडा प्रजाति के केंचुओं का केंचुआ खाद बनाने में वृहद रुप से प्रयोग हो रहा है। इन्हें इनके रुप रंग के आधार पर लाल केंचुआ, गुलाबी बैंगनी केंचुआ, टाइगर वर्म तथा बैंडिग वर्म के नाम से भी जाना जाता है।
  • जीवित केंचुए लाल, भूरे या बैंगनी रंग के होते हैं। ध्यानपूर्वक देखने पर इनके पृष्ठ भाग पर रंगीन धारियाँ दिखायी देती हैं प्रतिपृष्ठ भाग पर इस केंचुए का शरीर पीले रंग का होता है।
  •  यह केंचुए 3.5 से 13.0 से0मी0 लम्बे तथा इनका व्यास लगभग 3.0 से 5.0 मि०मी० तक का होता है।
  •  यह केंचुए सतह पर रहने वाले (एपीजेइक) स्वभाव के होते हैं तथा अधिक मिट्टी खाते हैं।
  •  यह जुझारु प्रवृत्ति के हैं तथा तापमान एवं आर्द्रता की सुग्राहयता, नये वातावरण के अनुकूल जल्दी ढल जाने की क्षमता के कारण इनका उत्पादन व रखरखाव आसान होता है।
  •  यह शीघ्र वृद्धि करने की क्षमता रखते हैं तथा एक परिपक्व केंचुआ के शरीर का वजन 1.5 ग्राम तक हो जाता है तथा यह कोकून से निकलने के लगभग 50-55 दिन बाद प्रजनन क्षमता हासिल कर लेता है।
  • एक वयस्क केंचुआ औसतन तीसरे दिन एक कोकून बनाता है। तथा प्रत्येक कोकून से हैचिंग के बाद (23 दिन में) 1-3 केंचुए उत्पन्न होते हैं।

2. आइसीनिया एन्ड्रेई (Eisenia andrie)

यह केंचुआ समान रुप से लाल रंग का होता है जो इसे आइसीनिया फोटिडा से अलग पहचान करने में मददगार है। शेष गुण आइसीनिया फोटिडा की तरह ही होते हैं।

3. पेरियोनिक्स एक्सकैवेटस (Parionyx excavatus)

 

  •  विश्व के अनेक भागों में इसका उपयोग केंचुआ खाद बनाने के लिए किया जाता है।
  • इसके शरीर का पृष्ठतल (ऊपरी भाग) गहरे बैंगनी से लालिमायुक्त भूरा तथा प्रतिपृष्ठतल (निचला भाग) पीले रंग का होता है।
  • इस केंचुए की लम्बाई 2.3-12.0 सेमी तक तथा व्यास 2.5 मि०मी० होता है।
  •  इसका जीवन चक्र लगभग 46 दिन तथा वृद्धि दर 3.5 मि0ग्रा0 / दिन होता है। इसके शरीर का अधिकतम वजन 600 मि0ग्रा0 होता है।
  • केंचुआ 21-22 दिनों में वयस्क होकर 24वें दिन से कोकून बनाना आरम्भ कर देता है।

4. यूड्रिलस यूजिनी (Eudrilus eugeniae)

इसे रात्रि में रेंगने वाले केंचुए के नाम से भी जाना जाता है। यह केंचुआ खाद बनाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले केंचुओं में सबसे शीघ्र वृद्धि करने वाला है तथा केंचुआ खाद बनाने में आइसीनिया फोटिडा के बाद सबसे अधिक प्रयोग में लाया जाता है। इसका प्रयोग मुख्यतः दक्षिण भारत के इलाकों में केंचुआ खाद बनाने के लिए सर्वाधिक किया जा रहा है।

  •  इसका रंग भूरा तथा लालिमायुक्त गहरे बैंगनी, पशु के मांस की तरह का होता है।
  • इसकी लम्बाई लगभग 3.2-14.0 सेमी तथा व्यास 5.0-8.0 मि०मी० तक होता है।
  • यह अन्य प्रजातियों की तुलना में शीघ्र वृद्धि करता है तथा पाचन एवं कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की तीव्र क्षमता रखता हैं। इसकी औसत वृद्धि दर 4.3 से 120 मि0ग्रा0 / दिन तक संभव है।
  • यह 40 दिनों में वयस्क हो जाते हैं तथा इसके एक सप्ताह बाद कोकून बनाना प्रारम्भ कर देते है। अनुकूल परिस्थितियों में एक केंचुआ 46 दिनों तक 1 से 4 कोकून प्रति 3 दिन के औसत से कोकून बनाता है इस केंचुए का जीवनकाल 1-3 वर्ष तक का होता है तथा प्रति कोकून 1-5 केंचुए निकलते हैं।
  • यह केंचुए निम्न तापमान सहने की क्षमता रखते हैं। तथा छायादार स्थिति में उच्च तापकम को भी सहन करने में सक्षम हैं।

5. लैम्पिटो मोरिटि (lampito mauritii)

इस केंचुए का शरीर गहरे पीले रंग का तथा शरीर का अग्रभाग बैंगनी रंग युक्त होता है। इसकी लम्बाई 8.0-21.0 सेमी तथा व्यास 3.5-5.0 मि०मी० तक होता है।

6. लुम्ब्रिकस रुबेल्लस (Lumbricus rubellus)

  •  यह अत्यधिक नमी तथा कार्बनिक पदार्थों वाले स्थानों में पाया जाता है इसीलिए इसे "रेड मार्स वर्म" भी कहते हैं।
  •  इसके शरीर का पृष्ठभाग लालिमायुक्त बैंगनी तथा प्रतिपृष्ठ भाग पीले रंग का होता है।
  •  यह मध्यम आकार का केंचुआ है जिसकी लम्बाई 6.0-15 सेमी तथा व्यास 4.0-6.0 मि०मी० तक होता है।
  • यह केंचुआ सतह पर रहने वाले (एपीजेइक) केंचुओं जैसा है तथा युग्मन तथा उत्सर्जन कियायें गहराई में करता है।
  • इसका जीवन काल 1-2 वर्ष होता है तथा एक वयस्क केंचुआ 79-106 कोकून प्रतिवर्ष बनाता है।

तालिका 1: विभिन्न प्रकार के केंचुए की प्रजाति से तैयार की केंचुए खाद के पोषक तत्वों का विवरण 

 

Shinde et al.n(1992)
स्रोत :- Shinde et al.n(1992)

केंचुओं का जीवन चक्र व जीवन से सम्बन्धित जानकारियों

  1. केंचुए द्विलिंगी (Bi-sexual or hermaphodite) होते हैं अर्थात एक ही शरीर में नर (Male) तथा मादा (Female) जननांग (Reproductive Organs) पाये जाते हैं। केंचुए लगभग 30 से 45 दिन में वयस्क (Adult) हो जाते हैं और प्रजनन करने लगते हैं।
  2. द्विलिंगी होने के बावजूद केंचुओं में निषेचन (Fertilization) दो केंचुओं के मिलन से ही सम्भव हो पाता है क्योंकि इनके शरीर में नर तथा मादा जननांग दूर-दूर स्थित होते हैं, और नर शुक्राणु (Sperms) व मादा शुक्राणुओं (Ovums) के परिपक्व होने का समय भी अलग - अलग होता है। सम्भोग प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद केंचुए कोकून बनाते हैं। केंचुओं में मैथुन प्रक्रिया लगभग एक घण्टे तक चलती हैं। कोकून का निर्माण लगभग 6 घण्टों में पूर्ण हो जाता है।
  3.  एक केंचुआ 17 से 25 कोकून बनाता है और एक कोकून से औसतन 3 केंचुओं का जन्म होता है। केंचुओं में कोकून बनाने की क्षमता अधिकांशतः 6 माह तक ही होती है। इसके बाद इनमें कोकून बनाने की क्षमता घट जाती है।
  4. केंचुओं में देखने तथा सुनने के लिए कोई भी अंग नहीं होते किन्तु ये ध्वनि एवं प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं और इनका शीघ्रता से एहसास कर लेते हैं।
  5. शरीर पर श्लेष्मा की अत्यन्त पतली व लचीली परत मौजूद होती है जो इनके शरीर के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती है।
  6.  शरीर के दोनों सिरे नुकीले होते हैं जो भूमि में सुरंग बनाने में सहायक होते हैं। इनमें शरीर के दोनों सिरों (आगे तथा पीछे) की ओर चलने (Locomotion) की क्षमता होती है।
  7.  मिट्टी या कचरे में रहकर दिन में औसतन 20 बार ऊपर से नीचे एवं नीचे से ऊपर आते हैं। केंचुआ प्रतिदिन अपने वजन का लगभग 5 गुना कचरा खाता है। लगभग एक किलो केंचुऐ (1000 संख्या) 4 से 5 किग्रा0 कचरा प्रतिदिन खा जाते हैं।
  8. रहन-सहन के समय संख्या अधिक हो जाने एवं जगह की कमी होने पर इनमें प्रजनन दर घट जाती है। इस विशेषता के कारण केंचुआ खाद निर्माण (Vermi-composting) के दौरान अतिरिक्त केंचुओं को दूसरी जगह स्थानान्तरित (Shift) कर देना अत्यन्त आवश्यक है।
  9. केंचुए सूखी मिट्टी या सूखे व ताजे कचरे को खाना पसन्द नहीं करते अतः केंचुआ खाद निर्माण के दौरान कचरे में नमीं की मात्रा 30 से 40 प्रतिशत और कचरे का अर्द्ध-सड़ा (Semi-decomposed) होना अत्यन्त आवश्यक है।
  10.  केंचुए के शरीर में 85 प्रतिशत पानी होता है तथा यह शरीर के द्वारा ही श्वसन एवं उत्सर्जन का पूरा कार्य करता है।
  11.  कार्बनिक पदार्थ खाने वाले केंचुओं का रंग मांसल होता है जबकि मिट्टी खाने वाले केंचुए रंगहीन होते हैं।
  12.  केंचुओं में वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration) होता है जिसके लिए इनके शरीर में कोई विशेष अंग नहीं होते। श्वसन क्रिया (गैसों का आदान प्रदान) देह भित्ति की पतली त्वचा से होती है।
  13.  एक केंचुए से एक वर्ष में अनुकूल परिस्थितियों में 5000 से 7000 तक केंचुए प्रजनित होते हैं।
  14.  केंचुए का भूरा रंग एक विशेष पिगमेंट पोरफाइरिन के कारण होता है।
  15.  शरीर की त्वचा सूखने पर केंचुआ घुटन महसूस करता है और श्वसन (गैसों का आदान प्रदान) न होने से मर जाता है।
  16.  शरीर की ऊतकों में 50 से 75 प्रतिशत प्रोटीन, 6 से 10 प्रतिशत वसा, कैल्सियम, फास्फोरस व अन्य खनिज लवण पाये जाते हैं अतः इन्हें प्रोटीन एवं ऊर्जा का अच्छा स्रोत माना गया है।
  17.  केंचुओं को सुखा कर बनाये गये प्रतिग्राम चूर्ण (Powder) से 4100 कैलोरी ऊर्जा मिलती है।

स्रोत :- स्रोत-  राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र 

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Post By: Shivendra
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