राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट बताती है कि पहाड़ी राज्यों में जो योजनाएं हैं, वे पहाड़ी इलाकों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। आम तौर पर पहाड़ी क्षेत्र ढलान अस्थिरता से जुड़े होते हैं, और इन क्षेत्रों में भूस्खलन की आशंका अधिक होती हैं।
राज्य सभा में दिए गए एक लिखित जवाब में वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने पुरानी बातें दोहराते हुए कहा कि 1976 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित महेश चंद्र मिश्रा समिति ने जोशीमठ में भूस्खलन और स्थानीय धंसाव की चेतावनी दी थी। उस समय 18-सदस्यीय समिति के सदस्य संगठनों के पास उपलब्ध विशेषज्ञता और संसाधनों के अनुसार विभिन्न दीर्घकालिक और अल्पकालिक उपाय सुझाए गए थे। उनके मुताबिक, मिश्र समिति की सिफारिशों पर उत्तराखंड सरकार द्वारा कार्रवाई की जानी बाकी है।
उत्तराखंड में इस बार एक जून से अभी तक की बारिश को भारतीय मौसम विभाग सामान्य से 13 फीसद अधिक बता रहा है। उसका कहना है कि सामान्य से 19 फीसद से अधिक होने ही बारिश को असामान्य माना जा सकता है, लेकिन इस बार बाढ़ ने ऐसी तबाही मचाई कि लोगों की खेती बर्बाद हो गई। कई लोग और पशु मारे गए। घरों तथा दुकानों के अंदर पानी घुस गया। बाढ़ का ऐसा प्रकोप हुआ कि सरकार को पानी में डूबे हरिद्वार के क्षेत्रों को आपदाग्रस्त क्षेत्र घोषित करना पड़ा।
बीते कई वर्षों की अगर बात की जाए तो यह गांव, पशुपालन के मामले में एक विशेष स्थान बनाए हुए है. ऐसा कोई घर नहीं है, जहां आपको माल मवेशी नहीं मिलेंगे. हालांकि ऐसा नहीं है कि यहां के लोग पूरी तरह पशुपालन पर ही निर्भर रहते हैं.
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में बाढ़ के कारण हर साल औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है, 1600 लोगों की जान चली जाती हैं, तथा फसलों, घरों और सार्वजनिक सुविधाओं को औसतन 1805 करोड़ रुपये का नुकसान होता है।
जब हम बात तबाही के मंजर की करते हैं, तो बात सिर्फ हिमाचल की ही नहीं होनी चाहिए। बात पूरे हिमालय क्षेत्र की है जिसकी सत्ता, समाज और सियासत, तीनों ने मिलकर बेतरतीब तरीके: से इसका दोहन किया है।
कुछ वर्षों में पूरी दुनिया में एक ओर भारी वर्षा ,तूफान और बाढ आरही है वहीं दूसरी ओर गर्मी और लू का प्रकोप भी बढा है। भारत में भी गर्मी बढने के कारण ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार तेज हो गई है। संभव है कुछ दशक के बाद गंगा और यमुना जैसी नदियों में ग्लेशियरों के समाप्त होजाने के कारण पानी आना बंद हो जाये।
क्लाइमेट चेंज; इन दो शब्दों ने दुनिया को डिस्टर्ब कर रखा है. हम दो तरह की बातें अक्सर सुनते हैं. एक तो ये कि इससे दुनिया को क्या क्या और कैसे कैसे खतरे हैं और दूसरा ये कि इन खतरों से निपटने के लिए दुनिया भर के राजनीतिज्ञ क्या क्या राजनीति करने में मशगूल हैं। हममें से कम ही लोगों को इस बात का एहसास होगा कि यह दुनिया को उसके अंत तक भी ले जा सकता है. अगर आपको इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा है, तो कोई बात नहीं, यह साक्षात्कार पूरा पढ़ने के बाद हो जाएगा. सोपान जोशी जल मल थल किताब के लेखक हैं और क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर लगभग पचीस सालों से सघन काम कर रहे हैं। क्लाइमेट चेंज का कांसेप्ट आखिर है क्या चीज़? क्या हमारे विकास में ही हमारे विनाश के बीज छुपे हुए हैं और क्या क्लाइमेट चेंज के दुष्प्रभावों से हम इस दुनिया को महफूज़ रख पाएंगे? इन्हीं और ऐसे ही सवालों पर सोपान जोशी से यह बातचीत की है नितिन ठाकुर ने
स्वच्छ भारत अभियान के कारण भले ही गांव खुले में शौच से मुक्त हो गया है, लेकिन कूड़ा करकट के उचित निपटान की समस्या लूणकरणसर के कई गांवों में अभी भी बनी हुई है. लोग जहां तहां अपने घर का कूड़ा फेंक देते हैं.
Microplastic pollution in our rivers and lakes is increasing threatening livelihoods and health. More research and evidence is urgently needed to design environmentally sound coping and disposal mechanisms.
Farmers' input, subsidies, incentives, and promotion through PDS could enhance the adoption of alternative cereals. Future policy framing should consider subsidies, irrigation efficiency, yield gap, and technological improvements.
Women have often led the acts of resilience, and transformation, batting two warfronts at once, calamities and gendered social restrictions. It becomes important to explore, highlight, and reiterate their accomplishments as the changemakers, and not as the passive recipients.
वायु प्रदूषण और गुणवत्ता के विशेषज्ञ वैज्ञानिक वायु गुणवत्ता डाटा एकत्र करने के साथ उनके स्रोत, कारणों और परिणामों का पता लगाने के लिए डाटा का बारीकी से विश्लेषण करते हैं. वे वायु प्रदूषण प्रयोगशालाएं स्थापित और उन्हें संचालित करते हुए वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम के विकास और क्रियान्वयन का अग्रिम मोर्चा संभालते हैं.
1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत में समृद्ध भविष्य के निर्माण की दिशा में अपनी उर्जा लगाते हुए एक असाधारण यात्रा शुरू की प्रगति की इस पद पर असंख्य चुनौतियों में से एक बड़ी चुनौती है स्वच्छता की चुनौती आर्थिक वृद्धि और सामाजिक विकास के लिए प्रयास करने के बावजूद खुले में शौच और अपर्याप्त स्वच्छता सुविधाओं की चुनौती देश के स्वास्थ्य और गरिमा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है