आत्मनिर्भर गाँव में कृषि की भूमिका

आत्मनिर्भर गाँव में कृषि की भूमिका
आत्मनिर्भर गाँव में कृषि की भूमिका

कृषि विकास से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास संभव है। देश का कृषि क्षेत्र जितना अधिक धारणीय, विकसित और समावेशी होगा, ग्रामीण भारत का विकास उतना ही उत्कृष्ट होगा। कृषि क्षेत्र की संवृद्धि के बिना ग्रामीण आत्मनिर्भरता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, चूंकि कृषि और कृषि आधारित उद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।

कृषि अभी भी हमारे देश की जीवनरेखा बनी हुई है। देश का समग्र विकास कृषि क्षेत्र का विकास किए बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है। देश की सतत खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए सफल अनुसंधान परिणामों, उन्नत तकनीकों, कम समय में अधिक उपज देने वाली एवं जलवायु अनुकूल किस्मों और उन्हें किसानों तक पहुँचाने में उल्लेखनीय योगदान रहा है।

कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का आधारभूत स्तंभ है। यह न केवल भारत की जीडीपी का छठवां भाग निर्मित करता है बल्कि देश की 42 प्रतिशत आबादी आज भी अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। यह क्षेत्र द्वितीयक उद्योगों के लिए प्राथमिक उत्पाद भी उपलब्ध कराता है। कृषि एवं संबद्ध सेवाओं में लगा यह विशाल जनबल केवल उत्पादक ही नहीं, अपितु देश को सबसे बड़ा बाजार देने वाला उपभोक्ता वर्ग भी है। कृषि क्षेत्र देश की 140 करोड़ आबादी को खाद्य सुरक्षा और 39 करोड़ पशुधन को चारा प्रदान करता है। यह गरीबी निवारण, पोषण सुरक्षा, आर्थिक स्थिरता, पारिस्थितिकीय स्थायित्व, पर्यावरणीय संतुलन और ग्रामीणों की गैर कृषि आय को आधार प्रदान करता है। अतः कृषि विकास को बढ़ावा देकर 'आत्मनिर्भर' ग्रामीण भारत का स्वप्न साकार कर सकते हैं।

आत्मनिर्भर भारत का मार्ग आत्मनिर्भर गाँवों के संकल्प से निर्धारित होता है। अतीत में आत्मनिर्भर गाँवों का सिद्धांत ही भारत को 'सोने की चिड़िया' कहने का मुख्य कारण था। परंतु उपनिवेशवादी नीतियों ने आत्मनिर्भर गाँवों के संकल्प को तहस- नहस कर दिया। कालांतर में कृषि लाभ में निरंतर कमी, बेहतर रोजगार की व्यवस्था, आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता, जीवन के लिए भौतिक सुविधाओं की सुलभता, आधुनिक सुख-सुविधाओं आदि की कमी ने ग्रामीण आत्मनिर्भरता को गाँवों से विवर्तित करके भारतीय शहरों में स्थापित कर दिया था।

देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर प्रवासन में तेजी आई है, लेकिन एक सत्य यह भी है कि कोविड-19 की वैश्विक महामारी के दौरान भारत में रिवर्स माइग्रेशन भी व्यापक पैमाने पर हुआ है, जिसने ग्रामीण आत्मनिर्भरता की आवश्यकता को उजागर किया है, जिसके लिए ग्रामीण विकास की गति को बढ़ाना होगा। इसके लिए बेहतर अवसर और सुविधाओं की सुलभता, परिवहन और संचार अवसंरचना, रोजगार और आजीविका प्रबंधन, आवासन और स्वच्छता का विकास आवश्यक है। इन क्षेत्रों के विकास के लिए निवेश में वृद्धि, उद्यमों में उद्यमिता, उपभोक्ता समुदाय, रोजगार,शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रेरणा आदि के रूप में ग्रामीण विकास को बढ़ावा मिलता है और इस दिशा में कृषि क्षेत्र का संवर्धन बड़ी भूमिका अदा कर सकता है।

सहकारी कृषि से ग्रामीण समृद्धि

सहकारिता पारस्परिक सहयोग के माध्यम से सामूहिक और व्यक्तिगत लाभ की भावना पर आधारित है। यह समावेशी और संपोषणीय विकास का पर्याय है। हम सहकारी कृषि को बढ़ावा देकर आत्मनिर्भर ग्रामीण भारत का स्वप्न साकार कर सकते हैं; सहकारिता ग्रामीण औद्योगीकरण का स्वप्न भी साकार कर सकती है। सहकारिता से छोटे उद्यमों की संपर्क शक्ति बढ़ेगी। उन्हें विभिन्न नजदीकी बाजार मिल सकेंगे, वित्त सुविधा मिलेगी और वे वृहद् स्तर पर काम कर सकेंगे। इससे वे अधिक रोजगार दे सकेंगे। सहकारिता से बाजारों में आपसी साझेदारी बढ़ जाती है।

नए उद्यमों और संसाधनों के बारे में ज्ञान के लिए सहकारी संपर्क अत्यंत आवश्यक है। छोटे उद्यम प्रायः बड़ी मशीनों का खर्च उठाने में असमर्थ होते हैं, जबकि सहकारी संपर्क से उन्हें तत्काल समाधान मिल सकता है। सहकारी प्रगति से लैंगिक भेदभाव भी खत्म होता है। एक नए उद्यमी विचार रखने वाला कोई भी पुरुष या महिला आसानी से उद्यम शुरू कर सकता है। सहकारिता से छोटे व मझोले उद्यमों में महिलाओं के लिए कई सुअवसर निश्चित किए जा सकते हैं और किए भी जा रहे हैं। कृषि उत्पादन प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा, आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन, ऊर्जा सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में सहकारिता आधारित मॉडल सर्वाधिक अनुकूल एवं व्यवहार्य मॉडल हैं।

सहकारिता ग्रामीण भारत को उद्यमोन्मुखी बनाकर न केवल समग्र विकास कर सकती है, बल्कि शहरों पर आबादी के अनावश्यक दबाव को कम कर शहरी आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सक्षम है। आज दुनिया चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रही है और बड़ी संख्या में मानव श्रम का स्थान मशीनें ले रही हैं। इस मशीनीकरण और ऑटोमेशन से हमारी बड़ी आबादी को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है जबकि सहकारिता ऐसी समस्याओं से निपटने में सक्षम है।
आज सहकारिता ने अपनी उद्यम संस्कृति से देश में हर तरफ आपूर्ति श्रृंखलाएं स्थापित की है, चाहे वह उत्पादन का क्षेत्र हो या फिर उपभोग क्षेत्र हो, बैंकिग, खुदरा, विपणन, आवास, कृषि, खरीद, निर्माण, आजीविका सहित उद्यमिता के हर क्षेत्र में सहकारिता का हस्तक्षेप है। भारत में सहकारिता श्वेतक्रांति की सफलता का आधार रही है और इसने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक भी बनाया है।

'वोकल फॉर लोकल' स्थानीय उत्पादों और व्यवसायों को बढ़ावा देकर उनकी विशिष्टता को देश-विदेश तक पहुंचाने का अभियान है। इसका उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाना है। इससे एक तो विदेशी निर्भरता कम होगी और दूसरा, देश में आय, उत्पादन व रोजगार के अतिरिक्त अवसर सृजित होंगे। सहकारिता इसको सार्थक दिशा दे सकती है, क्योंकि 'वोकल फॉर लोकल' अर्थव्यवस्था के लिए तभी प्रभावी सिद्ध हो सकता है, जब देश के लोगों में देशी उत्पादों के प्रति अपनापन हो, जैसा कि जापान के नागरिकों में है, और यह अपनापन 'सहकारिता' से पैदा होता है क्योंकि सहकारी उद्यमों में जो उत्पादक होते हैं, वही मालिक, विक्रेता और उपभोक्ता होते हैं। इसलिए उनमें उत्पादों के प्रति अपनापन होता है और वह उत्पादों की ब्रांडिंग भी करते हैं। इसके अलावा, सहकारी उत्पादों की गुणवत्ता भी उत्कृष्ट होती है।

भारत सरकार ने तृणमूल स्तर पर सहकारिता को मजबूत करने के लिए अगले 3 वर्षों में 63 हजार प्राथमिक साख सहकारी समितियों (पैक्स) के कंप्यूटरीकरण हेतु 2516 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया है और परंपरागत भूमिकाओं के अतिरिक्त पैक्स के क्रियाकलापों में 25 नई गतिविधियों को शामिल किया गया है, ताकि वे परिवर्तित आवश्यकताओं के अनुरूप मांगों को पूरा कर सके। कर रियायतों के तहत सरकार ने 1 करोड़ से 10 करोड़ रुपये तक आय अर्जन वाली सहकारी समितियों पर अधिभार को 12 प्रतिशत से घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया है, जबकि सभी सहकारी समितियों के लिए न्यूनतम वैकल्पिक कर की दर को 18.5 प्रतिशत से घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया है।

''चीनी सहकारी मिलों को किसानों के गन्ने का अधिकतम मूल्य चुकाने पर अतिरिक्त आय को करमुक्त कर दिया गया है। सहकार-आधारित विकास मॉडल को गति प्रदान करने हेतु सहकारी संस्थानों को, पर्याप्त, किफायती और समय पर ऋऋण उपलब्ध कराने के लिए, 'गारंटी फंड ट्रस्ट योजना' में सदस्य उधारकर्ता संस्थान के रूप में अधिसूचित किया गया है।''


सहकारिता मंत्रालय के अधीन एक सांविधिक संगठन के रूप में एनसीडीसी देश में सहकारी उद्यमिता का पारितंत्र विकसित करने वाली परियोजनाओं का वित्तपोषण कर रहा है। जैसे सहकारी उद्यम सहयोग व नवाचार में 'युवा सहकार', स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को कवर करने वाली 'आयुष्मान सहकार', महिला सहकारी समितियों की सहायता के लिए 'नंदिनी सहकार' आदि के लिए वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है।

कृषि स्टार्टअप से बढ़ती ग्रामीण उद्यमिता

एग्री स्टार्टअप की वृद्धि को भारतीय कृषि में 'आशा की किरण' कहा जा रहा है, क्योंकि ये कृषि के विभिन्न पहलुओं के लिए नवोन्मेषी समाधान विकसित कर रहे हैं। किसी कंपनी या अस्थायी संगठन के रूप में शुरू किए गए उद्यम या नए व्यवसाय को 'स्टार्टअप' कहते हैं। 'स्टार्टअप' किसी कंपनी के संचालन के पहले चरण को संदर्भित करता है। ये एक ऐसे उत्पाद या सेवा का विकास करना चाहते हैं जो बाजार में मांग और विकास की संभाव्यता धारित करते हैं। एग्री स्टार्टअप सटीक खेती, आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन और बाजार लिंकेज सहित कृषि के विभिन्न पहलुओं के लिए अभिनव समाधान विकसित कर रहे हैं। ये उत्पादकता में सुधार, लागत घटाने और किसानों की आय बढ़ाने में मदद कर रहे हैं। चूंकि भारत में लघु एवं सीमांत किसान निम्न आय, बढ़ते कर्ज, एकल- फसल संस्कृति, अनौपचारिक उधारदाता, उत्पाद कीमतों में उतार-चढ़ाव की स्थिति से जूझ रहे है, और जो किसान कृषि क्षेत्र में उद्यम करना चाहते हैं, उनके पास उचित निवेश, विपणन चैनल और ज्ञान उपलब्ध नहीं है। ऐसे माहौल में एग्री स्टार्टअप्स कृषि विविधीकरण और किसानों की आय में वृद्धि का माध्यम बन रहे हैं। एग्री स्टार्टअप किसानों को न्यूनतम स्थान और श्रम की आवश्यकता रखने वाले माइक्रो-फार्म इंस्टॉलेशन के साथ कृषि उद्यम के कार्यों हेतु सशक्त बना रहे हैं।

 यह कृषि विविधीकरण किसानों को वर्ष भर आय अर्जित करने, अपनी आय बढ़ाने, उत्पादकता एवं लाभप्रदता में सुधार लाने और संवहनीय कृषि प्रणालियों को अपनाने में मदद कर रहा है। इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग के साथ एग्री स्टार्टअप कृषक समुदायों के बीच जागरूकता की वृद्धि कर रहे हैं और उन्हें व्यापारियों, खुदरा विक्रेताओं एवं निर्यातकों के नेटवर्क से जोड़ रहे हैं, जहाँ उनकी उपज के लिए उच्च मूल्य प्राप्त होने के अवसर उपलब्ध होते हैं। आपूर्ति श्रृंखला मंचों में तकनीकी प्रगति के परिणामस्वरूप कृषि उद्यम में संलग्न किसानों को उच्च गुणवत्ता युक्त लाइव इनपुट सामग्री की आपूर्ति मिल रही है। फिनटेक और एग्रीटेक स्टार्टअप के उदय के साथ देश का ऋण परिदृश्य बदल रहा है और साख सुविधाओं से वंचित रहे लघु एवं सीमांत किसान अब औपचारिक संस्थानों से निम्न ब्याज दरों पर ऋण प्राप्त कर सकते हैं।

कृषि स्टार्टअप देश की कृषि उद्यमिता में आमूलचूल परिवर्तन ला रहे हैं और इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। हालांकि अभी देश में मान्यता प्राप्त एग्रीटेक स्टार्टअप 1485 है लेकिन कृषि के विभिन्न क्षेत्रों में इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2013 तक देश में केवल 43 कृषि स्टार्टअप कंपनियां थी जिनकी संख्या बढ़कर अब 4979 हो गई है। खाद्य प्रसंस्करण में 1774, जैविक कृषि में 474, पशुपालन और डेयरी में 130, बागवानी में 48, मत्स्य पालन में 22 से अधिक कृषि स्टार्टअप सक्रिय हैं। हालांकि अभी एग्री स्टार्टअप को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन सरकारी पहलों से स्टार्टअप पारितंत्र में निरंतर सुधार हो रहा है। सरकारी प्रोत्साहन एवं हस्तक्षेप के साथ नियमित डिजिटल रूपांतरण भारत में कृषि मॉडल को मजबूत कर सकते हैं। एग्रीटेक स्टार्टअप्स और नवाचार का संयोजन भारतीय कृषि की गतिशीलता को बदल कर एक भविष्योन्मुखी मॉडल का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। बढ़ती आबादी, जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा संकट के साथ भारतीय कृषि के लिए आवश्यक है कि वह पारंपरिक विकास मॉडल से एक नए भविष्योन्मुखी एवं संवहनीय मॉडल की ओर आगे बढ़े। कृषि क्षेत्र में नियमित सकारात्मक परिवर्तन कृषक समुदाय को अगले स्तर तक ले जा सकते हैं। जबकि एग्रीटेक फर्मों को प्रोत्साहन तथा डिजिटल अवसंरचना और नवीन तकनीकों के लिए समर्थन एक उत्कृष्ट कृषि विकास मॉडल की शुरुआत कर सकता है।

कृषि शिक्षा और विस्तार सेवाएं शिक्षा किसी व्यवस्था की अंतर्निहित क्षमता और कार्यप्रणाली को विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही व्यवस्था को तार्किक, आधुनिकीकृत और वैज्ञानिक बनाती है और आवश्यक ज्ञान एवं कौशल उपलब्ध कराती है। देश की कृषि व्यवस्था में अब तक हुए मौलिक परिवर्तन कृषि शिक्षा और विस्तार सेवाओं के ही परिणाम है और आज भी कृषि क्षेत्र को उत्कृष्टता तक पहुँचाने के लिए शिक्षा, विस्तार सेवाएं, शोध और तकनीक की आवश्यकता है। वैज्ञानिक शिक्षा और तकनीक कृषि विकास के इंजन हैं। अनाज आयातक से अनाज निर्यातक देश बनने तक के सफर में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

कृषि क्षेत्र की प्रगति में हरितक्रांति से सदाबहार क्रांति तक शिक्षा, शोध, वैज्ञानिक तकनीक और विस्तार सेवाओं ने कई मील के पत्थर स्थापित किए हैं। कृषि शिक्षा और विस्तार सेवाओं के बल पर पिछले 7 दशकों में हमने खाद्यान्न उत्पादन में 6.5 गुना, बागवानी उत्पादन में 13 गुना, दूध उत्पादन में 13 गुना, मछली उत्पादन में 21.6 गुना, अंडों के उत्पादन में 70.7 गुना वृद्धि अर्जित की है जिसका राष्ट्रीय खाद्य और पोषण सुरक्षा पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित हुआ है। कृषि में शिक्षा और विस्तार सेवाओं ने न केवल देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया है, बल्कि कृषि में उद्यमिता और नवाचारों का समावेशन भी किया हैं, जिसके चलते गाँवों में उद्यम संस्कृति का विकास हुआ है। इससे गाँवों में गरीबी की गहनता घटी है और खाद्य सुरक्षा बढ़ी है।

पिछले कुछ दशकों में तकनीक और विस्तार सेवाओं से भारतीय कृषि में उल्लेखनीय बदलाव आया है और शोध एवं तकनीकों में कृषि क्षेत्र को उत्कृष्टता तक पहुँचाने के लिए दीर्घकालिक संभावना निहित है। इससे बीज की समस्याओं, कीट और रोग की समस्याओं, फसल स्थिरता, जलवायु परिवर्तन, सिंचाई की समस्याओं, मिट्टी के कटाव जैसी समस्याओं पर काबू पाने में मदद मिल सकती है। इसके लिए कृषि क्षेत्र में शोध, तकनीकों और विस्तार सेवाओं का दायरा बढ़ाने की आवश्यकता है।

हालांकि देश भर में फैले 101 आईसीएआर संस्थाओं, 71 कृषि विश्वविद्यालयों, 876 कृषि कालेजों, 731 कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) का नेटवर्क वैज्ञानिक उपलब्धियों और विस्तार सेवाओं को किसानों तक पहुँचा रहा है, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली (एनएआरएस) है। इसके माध्यम से कृषि शिक्षा और विस्तार सेवाओं ने वैज्ञानिक उपलब्धियों को 'प्रयोगशाला से खेत तक' पहुँचाया है। एनएआरएस पिछले 4 दशकों से पारंपरिक कृषि के परिवर्तन के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराकर कृषि क्षेत्र को उत्कृष्टता प्रदान कर रहा है। यह कृषि क्षेत्र में हरितक्रांति से इंद्रधनुषी क्रांति, इंद्रधनुषी क्रांति से सदाबहार क्रांति का मुख्य वाहक रहा है और अब जीन क्रांति की ओर अग्रसर है।

भारत सरकार भी अब इनपुट इंटेन्सिव से नॉलेज इंटेन्सिव कृषि को बढ़ावा दे रही है। सरकार कृषि शोध को बढ़ावा देने के लिए स्टुडेंट रेडी (ग्रामीण उद्यमिता जागरूकता विकास योजना) कार्यक्रम, कृषि में युवाओं को आकर्षित करने हेतु आर्या योजना, आत्मा योजना, कृषोन्नति योजना जैसे कार्यक्रम चला रही है। समय के साथ तकनीक और विस्तार सेवाओं का दायरा भी बढ़ा है। पहले सरकार पोषित अनुसंधान संस्थान, कृषि विश्वविद्यालय और सार्वजनिक उपक्रम कृषि के तौर-तरीकों के लिए अनुसंधान एवं विकास पारिस्थितिकी तंत्र में प्रमुख हितधारक थी। लेकिन आज निजी स्टार्टअप, देशी कंपनियां, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और निजी कंपनियां भी शामिल हैं, जो कृषि अनुसंधान एवं विकास पर काफी निवेश कर रहे हैं और इन सबके चलते वैज्ञानिक कृषि तरीकों के अपनाए जाने के कारण कृषि उद्योग में क्रांतिकारी बदलाव आ रहा है।

कृषि विकास और खाद्य सुरक्षा

कृषि ग्रामीण भारत की गरीबी निवारण और खाद्य सुरक्षा का प्रमुख माध्यम है। वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने 17 सतत विकास लक्ष्यों का आह्वान किया था, जो खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। वर्ष 2030 तक इन लक्ष्यों को पाने के लिए कृषि की भूमिका को ही आवश्यक माना गया है। देश में 1950 के दशक की शुरुआत से खाद्यान्न की पैदावार बढ़कर 50.82 मिलियन टन से वर्ष 2022-23 में 329.68 मिलियन टन हो गई है यानी पिछले 7 दशकों में 6.5 गुना वृद्धि हुई है। लेकिन कृषि की मौजूदा प्रगति से कृषि और कृषकों की आय व स्थिति में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है, जिसके चलते दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद देश की कुल आबादी का छठवां हिस्सा अल्पपोषित अथवा भुखमरी का शिकार है।

हालांकि पिछले 72 वर्षों में कृषि क्षेत्र ने उल्लेखनीय प्रगति की है, जिसमें हरित क्रांति का काफी योगदान रहा है जिसने व्यापक रूप से गेहूं और चावल जैसे खाद्यान्नों की उच्च उपज वाली किस्मों को अपनाने के लिए प्रेरित किया है। इसके बावजूद कृषि क्षेत्र की संभाव्य क्षमता का पूर्ण प्रयोग नहीं हो पाया है। कृषि क्षेत्र के सामने सबसे बड़ी समस्या कम उपज की रही है। भारत की कृषि उपज विकसित देशों की तुलना में 35 से 50 प्रतिशत कम है। इसके लिए कई कारणों को जिम्मेदार माना जा सकता
है। उदाहरण के लिए औसत कृषि आकार, खराब बुनियादी ढांचा, सर्वोत्तम कृषि तकनीक का कम उपयोग, निरंतर कीटनाशक के उपयोग के कारण मिट्टी की उर्वरता में कमी, मिट्टी के कटाव व मृदा में कार्बन की कमी की वजह से उत्पादकता और खेती में कमी आ रही है। जबकि खाद्य एवं कृषि संगठन का मानना है कि वर्ष 2050 तक भारत में खाद्यान्न की मांग में 60 से 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाएगी, जिसे कृषि के मौजूदा स्वरूप से पूरा कर पाना संभव नहीं है।

फिलहाल भारत की आबादी 1.04 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रही है, जिसके वर्ष 2030 तक 1.5 अरब तक पहुँचने का अनुमान है, लेकिन इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए खाद्यान्न उत्पादन में अनेक समस्याएं हैं। जलवायु परिवर्तन न सिर्फ़ आजीविका, पानी की आपूर्ति और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है बल्कि खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती खड़ी कर रहा है। ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि क्या भारत इन चुनौतियों के बीच अपनी विशाल आबादी का पेट भरने के लिए तैयार है? भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे प्रमुख है। यदि इस दिशा में कृषि के विकास को अग्रसर किया जाए तो कृषि क्षेत्र में निहित संभावनाएं ग्रामीण भारत को गरीबी और भुखमरी से निजात दिला सकती हैं।

जलवायु अनुकूल कृषि

जलवायु परिवर्तन की व्यापकता के चलते विश्व के बढ़ते तापमान से भारत जैसे कृषि प्रधान देशों की स्थिति पर अधिक आंच आने की आशंका है, क्योंकि देश का पारितंत्र मानूसन पर निर्भर करता है, जिस पर अभी भी देश की कृषि और कृषक आश्रित हैं। ऐसे में मौसम की अनियमिततता से जीविका व जीवन दोनों पर संकट बना रहता है। उच्च तापमान फसल की अवधि को छोटा, प्रकाश संश्लेषण में बदलाव, फसल श्वसन दर में वृद्धि और रोगजनकों की आबादी को भी प्रभावित करेगा। जलवायु परिवर्तन पोषक तत्वों को जेविक से गैर-जैविक में बदलता है और उर्वरक उपयोग की क्षमता को भी प्रभावित करता है। वाष्प उत्सर्जन बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों का क्षय होता है।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से फसल,पानी और मृदा पर पड़ता है क्योंकि ये पानी की उपलब्धता,सूखे की तीव्रता, सूक्ष्मजीव की आबादी, मिट्टी में मौजूद जैविक तत्वों में कमी, कम पैदावार, मृदा अपरदन के चलते मिट्टी की उर्वरा शक्ति में गिरावट आदि को प्रभावित करता है। वर्ष 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण में चेतावनी दी गई थी कि जलवायु परिवर्तन के कारण वार्षिक कृषि आय में 15 से 18 प्रतिशत और गैर-सिंचित क्षेत्रों की उपज में 20 से 25 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। 21वीं सदी के मध्य तक दक्षिण एशियाई देशों में कृषि पैदावार में 30 प्रतिशत तक गिरावट का अनुमान है, क्योंकि तापमान में केवल एक डिग्री सेल्सियस वृद्धि से मक्के की उत्पादकता 7.4 प्रतिशत, गेहूं की 6 प्रतिशत, चावल की 6.2 प्रतिशत और सोयाबीन की उत्पादकता 3.1 प्रतिशत कम हो जाती है। लेकिन यदि मौजूदा तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाए तो अनाज के उत्पादन में 20 से 40 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। चूंकि भारत में करोड़ों लोगों का जीवनयापन जलवायु की अनुकूलता से जुड़ा हुआ है, इसलिए अब परंपरागत कृषि पैटर्न में बदलाव की जरूरत है, क्योंकि एक तरफ, खाद्यान्न उत्पादक क्षेत्रों में अत्यधिक दोहन से भूमि की उर्वरता घट रही है, जिसका  उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है। दूसरी तरफ, देश में किसानों के पास कृषि योग्य भूमि औसतन 1.08 हेक्टेयर (कृषि गणना 2015-16) है। देश के कुल किसानों में 86 प्रतिशत हिस्सा लघु एवं सीमांत किसानों का है जो दो हेक्टेयर से कम भूमि के खेतिहर हैं। ये किसान कई तरह की समस्याएं जैसे खेती के लिए बीज, खाद, ऋण, खराब परिवहन और बाजार असुविधा की समस्या से जूझ रहे हैं। जबकि देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में इनकी हिस्सेदारी 60 प्रतिशत, चावल में 49 प्रतिशत,गेहूं में 40 प्रतिशत, दाल में 27 प्रतिशत, मोटे अनाज में 29 प्रतिशत है। ऐसे में देश के लघु एवं सीमांत किसानों को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचाना बहुत आवश्यक है।

जलवायु अनुकूल कृषि एक दृष्टिकोण है जिसमें जलवायु परिवर्तन में भी फसल और पशुधन उत्पादन के जरिए दीर्घकालिक उच्च उत्पादकता और कृषि आय के लिए प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करना शामिल है। जलवायु परिवर्तन से बढ़ती हानि को बचाने के लिए कृषि में जलवायु के अनुसार परिवर्तन किया जाना चाहिए। इसमें सूक्ष्म और समष्टि दोनों ही स्तर पर परिवर्तन करने होंगे। हालांकि जलवायु परिवर्तन के अनुरूप कृषि पैटर्न में बदलाव के लिए किसानों को तभी तैयार किया जा सकता है, जब उन्हें कृषि पैटर्न में बदलाव लाभ का सौदा महसूस होगा। उदाहरण के लिए यदि किसानों को समझाया जाए कि फसल विविधीकरण कृषि क्षेत्र की ज्यादातर चुनातियों का समाधान है, इसलिए जलवायु के अनुकूल फसलों का चयन किया जाना चाहिए। देश को 15 जलवायु क्षेत्र में बांटा गया है और किसानों द्वारा जोन के हिसाब से फसलों का चयन किया जाना चाहिए। अनुकूलन हेतु कृषि की आधुनिक तकनीकों का प्रसार किया जाना चाहिए। हालांकि सरकार ने जलवायु अनुकूल कृषि की दिशा में कई कदम उठाए हैं। उदाहरण के लिए पिछले दो दशकों से आईसीएआर जलवायु अनुकूल फसल किस्मों को विकसित कर रहा है और अब तक विभिन्न फसलों के लिए करीब 1880 जलवायु-अनुकूल प्रौद्योगिकियां विकसित की गई हैं। पिछले आठ वर्षों (2014-2022) के दौरान आईसीएआर ने 1956 उच्च उपज वाली किस्मों को जारी किया है, जिनमें से 1622 जलवायु अनुकूल किस्में हैं, जिनके उपयोग को बढ़ाना आवश्यक है। इसी तरह प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, परंपरागत कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई- नाम) आदि कुछ ऐसे प्रयास हैं, जिन्हें कृषकों की सहायता के लिए लाया गया है।

विस्तार सेवाओं और शोध एवं तकनीक की बढ़ती उपलब्धियों से किसान साल-दर-साल पैदावार बढ़ाने में सक्षम हो रहे हैं। आईसीएआर दलहन व तिलहन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने की योजना पर भी अग्रसर है। जिसके तहत दलहन व तिलहन की किस्मों में समय व सिंचाई दोनों की बचत का ध्यान रखा जा रहा है। प्रयोगशाला और खेत के बीच की दूरी को कम करने के उपायों पर भी काम किया जा रहा है। यद्यपि देश में कृषि अनुसंधान का क्षेत्र काफी विकसित है। फिर भी कृषि की समकालिक आवश्यकताओं को पहचान कर उन पर शोध किए जाने की जरूरत है।

कृषि क्षेत्र में कृत्रिम बुद्धिमत्ता

 देश में आजादी के बाद से ही कृषि सुधार के कई बड़े प्रयासों के बावजूद यह क्षेत्र मानसून की अनिश्चितता जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। ऐसे में मानसूनी अनिश्चितता, आय में अस्थिरता, जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं के निदान और कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में एआई सहायक हो सकती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता अथवा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) से आशय कंप्यूटर, रोबोट या किसी अन्य मशीन द्वारा मानव के समान बुद्धिमत्ता के प्रदर्शन से है। एआई किसी कंप्यूटर या मशीन द्वारा मानव मस्तिष्क के सामर्थ्य की नकल करने की क्षमता है, जिसमें अनुभवों से सीखना, वस्तुओं को पहचानना, भाषा को समझना और प्रतिक्रिया देना, निर्णय लेना, समस्याओं को हल करना जैसी कई क्षमताओं के संयोजन से मानव के समान ही कार्य कर पाने की क्षमता आदि शामिल है। आजकल एआई का प्रयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, अंतरिक्ष विज्ञान, रक्षा, परिवहन, कृषि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है। किसान एआई की मदद से मौसम पूर्वानुमान से मौसम की स्थिति का विश्लेषण कर सकते हैं कि उन्हें किस प्रकार की फसल उगाना और कब बीज बोना चाहिए। किसान एआई तकनीकों से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी, पौधों के कीटों व बीमारियों का पता लगा सकता है, और फसल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए उर्वरक उपयोग की सलाह ले सकता है। मशीन लर्निंग यह निर्धारित करती है कि किसी क्षेत्र की विशेषताओं को कैसे देखा जाना चाहिए, जबकि रोबोट कृषि मशीनरी को बुद्धिमानी से नियंत्रित कर उचित कार्रवाई करने में मदद करता है।

प्रौद्योगिकी संपूर्ण कृषि मूल्य श्रृंखला के साथ-साथ खेती में संभावनाएं खोल रही है। एआई उन प्रौद्योगिकियों में से एक है जो कृषि में बेहतरी के लिए परिवर्तन ला रही है। कृषि में एआई अनुप्रयोगों के लिए ऐसे ऐप्स और उपकरण तैयार किए गए हैं जो किसानों को जल प्रबंधन, फसल चक्र, समय पर कटाई, खेती योग्य फसल के प्रकार, इष्टतम रोपण, कीटों के हमले पर उपयुक्त सलाह देकर विनियमित खेती करने में सहायता करते हैं। जिन किसानों के पास इंटरनेट तक पहुँच नहीं है, वे एसएमएस सक्षमफोन और सोविंग ऐप जैसी तकनीकों का उपयोग करके एआई से लाभ उठा सकते हैं। वाई-फाई कनेक्टिविटी वाले किसान अपने खेतों के लिए एआई अनुकूलित योजना प्राप्त करने के लिए एआई कार्यक्रमों का उपयोग कर सकते हैं। कृषि आय में गिरावट के कारण इस क्षेत्र को श्रमिकों द्वारा बहुत ही कम प्राथमिकता दी जाती है जिसके चलते कृषि क्षेत्र में कार्यबल की कमी एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। श्रमिकों की इस कमी को दूर करने में एआई कृषि बाट्स एक उपयुक्त समाधान हो सकते हैं। साथही, फसल व मिट्टी की निगरानी, कीट व पौध संरक्षण, पशुधन स्वास्थ्य निगरानी, स्वचालित निराई, हवाई सर्वेक्षण, इमेजिंग, ग्रेडिंग आदि में भी एआई के बहुमुखी उपयोग संभव है। इस तरह, एआई कृषि क्षेत्र में सबसे सरल से लेकर जटिलतम कार्यों को निष्पादित कर सकती है।

भारत सरकार द्वारा किसानों को बेहतर परामर्श उपलब्ध कराने के लिए औद्योगिक क्षेत्र के साथ मिलकर 'एआई संचालित फसल उपज पूर्वानुमान मॉडल' के विकास पर कार्य किया जा रहा है। चूंकि खाद्यान्न की बढ़ती मांग को संभालने के लिए पारंपरिक तरीके पर्याप्त नहीं है। इसलिए एआई लगातार कृषि उद्योग में तकनीकी विकास कर रहा है। एआई संचालित समाधान न केवल किसानों को दक्षता सुधारने में सक्षम बना रहे हैं, बल्कि फसलों और पशुधन उत्पादों की मात्रा व गुणवत्ता में भी सुधार कर रहे हैं। फोर्ब्स का अनुमान है कि एआई और मशीन लर्निंग सहित स्मार्ट कृषि पर वैश्विक खर्च वर्ष 2025 तक तीन गुना बढ़कर 15.3 बिलियन डॉलर हो जाएगा। जबकि कृषि में एआई बाजार का आकार 20 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) की गति से बढ़कर वर्ष 2026 तक 2.5 बिलियन डॉलर तक पहुँच जाएगा। हालांकि भारतीय कृषि तकनीक बाजार का वर्तमान मूल्य 225 मिलियन यूएस डॉलर है, जिसके वर्ष 2022 से 2028 के दौरान 24 प्रतिशत सीएजीआर से बढ़ने का अनुमान है।

भारत में मृदा के प्रकार, जलवायु और स्थलाकृति विविधता के कारण भारतीय खेत और किसान न केवल भारत बल्कि विश्व में बड़े पैमाने पर एआई समाधान बनाने में सहायता के लिए व्यापक और समृद्ध डेटा प्रदान करते हैं। यह उन प्रमुख कारकों में से एक है जो भारतीय कृषि में एआई के लिए उपलब्ध अवसरों को अद्वितीय बनाता है। भारत सरकार ने वर्ष 2020-21 और 2021-22 के दौरान कृषि में ड्रोन, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, ब्लॉक चेन, रिमोट सेसिंग, जीआईएस आदि नई तकनीकों को पेश करने के लिए राज्यों को क्रमशः 1756.3 करोड़ और 2422.7 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की थी। जबकि नई प्रौद्योगिकियों के विकास, किसानों को नई तकनीक अपनाने, किसान के खेत में उनके प्रदर्शन व क्षमता निर्माण हेतु कृषि में अनुसंधान एवं विकास के लिए आईसीएआर को वर्ष 2020-21 और 2021-22 में क्रमशः 7302.50 करोड़ और 7908.18 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। कुल मिलाकर, कृषि विकास से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास संभव है। देश का कृषि क्षेत्र जितना अधिक धारणीय, विकसित और समावेशी होगा, ग्रामीण भारत का विकास उतना ही उत्कृष्ट होगा। कृषि क्षेत्र की संवृद्धि के बिना ग्रामीण आत्मनिर्भरता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, चूंकि कृषि और कृषि आधारित उद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।  कृषि आधारित उद्योग सामान्यतः वे उद्योग होते हैं जिनका कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध होता है। इसमें कच्चे माल की प्रसंस्करण गतिविधियों, कृषि आदानों के रूप में विभिन्न प्रकार की औद्योगिक, विनिर्माण और प्रसंस्करण गतिविधियों को शामिल किया गया है। यह ग्रामीण परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए कृषि ग्रामीण विकास का आधार है। कृषि आधारित उद्योग, जो ग्रामीण आर्थिक गतिविधि पर पनपते हैं, वही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त आय सृजित करते हैं जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य, आवासन, गुणवत्तापूर्ण जीवन, उपभोग स्तर बढ़ाने में मदद मिलती है।

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों का मुख्य उद्देश्य वर्ष 2030 तक गरीबी को पूर्णतः खत्म करना और सभी समाजों में सामाजिक न्याय व पूर्ण समानता स्थापित करना है। जबकि भारत 17 में से 13 लक्ष्यों को तभी प्राप्त कर सकता है, जब ग्रामीण भारत समृद्ध होगा और ग्रामीण भारत की समृद्धि के लिए देश के कृषि क्षेत्र का विकसित और धारणीय होना आवश्यक है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के 17 एसडीजी में से 12 एसडीजी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि से संबंधित हैं। इनमें से एसडीजी 2 (भुखमरी का खात्मा) सीधे कृषि को संबोधित है, जबकि एसडीजी 1, 3, 5, 6, 7, 8, 10, 12, 13, 14 और 15 परोक्ष रूप से कृषि से संबंधित हैं। संक्षेप में, कृषि और इससे जुड़े कार्यबल को धारणीय और विकसित बनाए बिना हम न तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का समुचित विकास कर सकते हैं और न ही आर्थिक स्थायित्व सुनिश्चित कर सकते हैं, क्योंकि देश की बढ़ती आबादी के सापेक्ष 2050 तक खाद्यान्न की मांग में 70 प्रतिशत की वृद्धि होगी, जबकि 900 मिलियन टन बागवानी उत्पादों की जरूरत होगी, जिसकी भरपाई कृषि क्षेत्र के विकास और विस्तार से ही संभव है। इसलिए विकास के समावेशन व स्थायित्व के लिए कृषि क्षेत्र को धारणीय और विकसित बनाना अपरिहार्य है।

स्रोत :- कुरुक्षेत्र, दिसम्बर 2023


लेखक गोस्वामी तुलसीदास राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चित्रकूट में असिस्टेंट प्रोफेसर (अर्थशास्त्र) और सहलेखक बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी में एसोसिएट प्रोफेसर (अर्थशास्त्र एवं प्रबंधन) हैं। ई-मेल: gajendra10.1.88@gmail.com

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Post By: Shivendra
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