पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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आरे, गंगा के किनारे
Posted on 29 Jul, 2013 01:04 PM आरे, गंगा के किनारे
झाऊ के वन से पगडंडी पकड़े हुए
रेती की खेती को छोड़कर, फूँस की कुटी;
बाबा बैठे झारे-बहारे।
हवाबाज ऊपर घहराते हैं,
डाक सैनिक आते-जाते हैं,
नीचे के लोग देखते हैं मन मारे।

रेलवे का पुल बँधा हुआ है,
तिनके की टट्टी के ठाट है,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं,
कहते हैं, कितने तारे!
सरि, धीरे बह री!
Posted on 29 Jul, 2013 12:54 PM सरि, धीरे बह रही!
व्याकुल उर, दूर मधुर,
तू निष्ठूर, रह री!
तृण-थरथर कृश तन-मन,
दुष्कर गृह के साधन,
ले घट श्लथ लखती, पथ
पिच्छल तू गहरी।
भर मत री राग प्रबल
गत हासोज्ज्वल निर्मल-
मुख-कलकल छवि की छल
चपला-चल लहरी!

‘गीतिका’ में संकलित

सरित के बोल खुले अनमोल
Posted on 29 Jul, 2013 12:51 PM नहीं रहते प्राणों में प्राण,
फूट पड़ते हैं निर्झर – गान।
कहाँ की चाप, कहाँ की माप,
कहाँ का ताप, कहाँ का दाप,
कहाँ के जीवन का परिमाप,
नहीं रे ज्ञात कहाँ का ज्ञान।

सरित के बोल खुले अनमोल,
उन्हीं में मुक्ता-जल-कल्लोल,
एक संदीपन का हिन्दोल,
एक जीती प्रतिमा बहमान।

बाँधों न नाव इस ठाँव, बंधु!
Posted on 29 Jul, 2013 12:48 PM बाँधों न नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव, बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!

रचनाकाल : 23 जनवरी, 1950, ‘अर्चना’ में संकलित

बाढ़
Posted on 27 Jul, 2013 12:36 PM (1)
पेय पय अंतर के स्नेह का पिलाती हुई,
खेल-सा खिलाती हुई,
नन्हीं उन लहरों को लेके निज गोद में,
मग्न थी अभी तो तू प्रमोद में;
जैसे कुल-लक्ष्मी निज अंतःपुर-चारिणी,
वैसे ही तटों के बीच भीतर विहारिणी,
तू थी महा शोभामयी
नित्य नई;
यमुने हे! तेरा वह शांत रूप सौम्याकार,
जान पड़ता था नहीं अंथःस्तल का विकार;
वरुणा की कछार
Posted on 23 Jul, 2013 03:10 PM

अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के विराग की प्यार।
सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन-कुंज
जगत-नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप, सुमनों के पुंज।
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्जवल व्यापार।
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूँजता था जिस से संसार।
अरी वरुणा की शांत कछार।
तपस्वी के विराग की प्यार।

river
वर्षा में नदी कूल
Posted on 23 Jul, 2013 03:06 PM सघन सुंदर मेघ मनहर गगन सोहत हेरि।
धरा पुलकित अति अनंदित रूप धरि चहुँ फेरि।।
लता पल्लवित राजै कुसुमित सों गुंजित।
सुखमय शोभा लखि मन लोभा कानन नव रंजित।।
विज्जुलि मालिनि नव कादंबिनि सुंदर रूप सुधारि।
अमल अपारा नव जल धारा सुधा देत मनु ढारि।।
सुखद शीतल करत हीतल विमल अनिल सुधीर।
तरंगिनि – कूल अनुकूल आह चलत मेटत पीर।।
तरंग चलत चपल लेत हिलोर अपार।
हृदय का सौंदर्य
Posted on 23 Jul, 2013 03:03 PM नदी की विस्तृत वेला शांत
अरुण मंडल का स्वर्ण-विलास;
निशा का नीरव चंद्र-विनोद,
कुसुम का हँसते हुए विकास।

एक से एक मनोहर दृश्य,
प्रकृति की क्रिड़ा के सब छंद;
सृष्टि में सब कुछ है अभिराम,
सभी में है उन्नति या ह्रास।

बना लो अपना हृदय प्रशांत,
तनिक तब देखो वह सौंदर्य;
चंद्रिका से उज्जवल आलोक,
मल्लिका-सा शोभन मृदुहास।
दीप
Posted on 23 Jul, 2013 02:59 PM धूसर संध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को,
अंधकार अवसाद कालिमा लिए रहा बरसाने को।
गिरि संकट में जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था,
कल-कल नाद नहीं था उसमें मन की बात न कहता था।
इसे जाह्नवी-सा आदर दे किसने भेंट चढ़ाया है,
अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया है।
जला करेगा वक्षस्थल पर बहा करेगा लहरी में,
नाचेंगी अनुरक्त विथियाँ रंजित प्रभा सुनहरी में।
निशीथ नदी
Posted on 22 Jul, 2013 12:17 PM विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो करके
नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा
प्रेमी के दृगतारा से ये निर्निमेष हैं
देख रहे से रूप अलौकिक सुंदर किसका
दिशा, धरा, तरु-राजि सभी ये चिंतित से हैं।
शांत पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है
दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा सी
तारा-ज्योति मिली है तम में, कुछ प्रकाश है
कूल युगल में देखो कैसी यह सरिता है
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