वर्षा में नदी कूल

सघन सुंदर मेघ मनहर गगन सोहत हेरि।
धरा पुलकित अति अनंदित रूप धरि चहुँ फेरि।।
लता पल्लवित राजै कुसुमित सों गुंजित।
सुखमय शोभा लखि मन लोभा कानन नव रंजित।।
विज्जुलि मालिनि नव कादंबिनि सुंदर रूप सुधारि।
अमल अपारा नव जल धारा सुधा देत मनु ढारि।।
सुखद शीतल करत हीतल विमल अनिल सुधीर।
तरंगिनि – कूल अनुकूल आह चलत मेटत पीर।।
तरंग चलत चपल लेत हिलोर अपार।
कूलन सो मिल करै खिल खिलि तटिनि विस्तृत धार।।
वृत्ति वेगवति चलत ज्यों अति मनुज ता बस होत।
तरंगिनि-धारा चलत अपारा चारु कल-कल होत।।
कूल-तरुस्रेनी अति सूख देनी सुंदर रूप विराजै।
वर्षा नटिनि के पट मनोहर, चारु किनारी राजै।।

प्रसाद जी की एक आरंभिक कविता ‘चित्रधारा’ से

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