सुर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

सुर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
धारा
Posted on 03 Aug, 2013 11:30 AM
बहने दो,
रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है,
यौवन-मद की बाढ़ नदी की
किसे देख झुकती है?
गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो-
अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।
सुना, रोकने उसे कभी कुंजर आया था,
दशा हुई फिर क्या उसकी?
फल क्या पाया था?

तिनका-जैसा मारा-मारा
फिरा तरंगों में बेचारा-
गर्व गँवाया-हारा;
अगर हठ-वश आओगे,
तरंगों के प्रति
Posted on 30 Jul, 2013 12:44 PM
किस अनंत का नीला अंचल हिला-हिलाकर
आती हो तुम सजी मंडलाकार?
एक रागिनी में अपना स्वर मिला-मिलाकर
गाती हो ये कैसे गीत उदार?
सोह रहा है हरा क्षीण कटि में, अंबर शैवाल,
गाती आप, आप देती सुकुमार करों से ताल।
चंचल चरण बढ़ाती हो,
किससे मिलने जाती हो?
तैर तिमिर-तल भुज-मृणाल से सलिल काटती,
आपस में ही करती हो परिहास,
हो मरोरती गला शिला का कभी डाँटती,
गीत
Posted on 30 Jul, 2013 12:43 PM
अस्ताचल रवि, छलछल-छवि,
स्तब्ध विश्व कवि, जीवन-उन्मन,
मंद पवन बहती सुधि रह-रह
परमिल की कह कथा पुरातन।

दूर नदी पर नौका सुंदर,
दीखी मृदुतर बहती ज्यों स्वर,
वहाँ स्नेह की प्रतनु देह की
बिना गेह की बैठी नूतन।

ऊपर शोभित मेघ छत्र सित,
नीचे अमिट नील जल दोलित;
ध्यान-नयन-मन, चिन्त्य प्राण-धन
,किया शेष रवि ने कर अर्पण।
लघु तटिनी
Posted on 30 Jul, 2013 12:41 PM
लघु तटिनी, तट छाईं कलियाँ,
गूँजी अलियों की आवलियाँ।

तरियों की परियाँ हैं जल पर,
गाती हैं खग-कुल, कल-कल-स्वर,
तिरती हैं सुख-सुकर पंख-भर,
घूम-घूमकर सुघर मछलियाँ।

जल-थल-नभ आनंद-भास है,
किसी विश्वमय का विकास है,
सलिल-अनिल उर्मिल विलास है,
निस्तल-गीति-प्रीति की तालियाँ।

परिचय से संचित सारा जग,
राग-राग से जीवन जगमग,
पतित पावनी, गंगे!
Posted on 29 Jul, 2013 01:30 PM
पतित पावनी, गंगे!
निर्मल-जल-कल-रंगे!

कलकाचल-विमल धुली,
शत-जनपद-प्रगद-खुली,
मदन-मद न कभी तुली
लता-वारि-भ्रू-भंगे!
सुर-नर-मुनि-असुर-प्रसर
स्तव रव-बहु गीत-विहार
जल-धारा-धाराधर-
मुखर, सुकर-कर-अंगे!

रचनाकाल : 16 जनवरी, 1950। ‘अर्चना’ में संकलित

आरे, गंगा के किनारे
Posted on 29 Jul, 2013 01:04 PM
आरे, गंगा के किनारे
झाऊ के वन से पगडंडी पकड़े हुए
रेती की खेती को छोड़कर, फूँस की कुटी;
बाबा बैठे झारे-बहारे।
हवाबाज ऊपर घहराते हैं,
डाक सैनिक आते-जाते हैं,
नीचे के लोग देखते हैं मन मारे।

रेलवे का पुल बँधा हुआ है,
तिनके की टट्टी के ठाट है,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं,
कहते हैं, कितने तारे!
सरि, धीरे बह री!
Posted on 29 Jul, 2013 12:54 PM
सरि, धीरे बह रही!
व्याकुल उर, दूर मधुर,
तू निष्ठूर, रह री!
तृण-थरथर कृश तन-मन,
दुष्कर गृह के साधन,
ले घट श्लथ लखती, पथ
पिच्छल तू गहरी।
भर मत री राग प्रबल
गत हासोज्ज्वल निर्मल-
मुख-कलकल छवि की छल
चपला-चल लहरी!

‘गीतिका’ में संकलित

सरित के बोल खुले अनमोल
Posted on 29 Jul, 2013 12:51 PM
नहीं रहते प्राणों में प्राण,
फूट पड़ते हैं निर्झर – गान।
कहाँ की चाप, कहाँ की माप,
कहाँ का ताप, कहाँ का दाप,
कहाँ के जीवन का परिमाप,
नहीं रे ज्ञात कहाँ का ज्ञान।

सरित के बोल खुले अनमोल,
उन्हीं में मुक्ता-जल-कल्लोल,
एक संदीपन का हिन्दोल,
एक जीती प्रतिमा बहमान।

बाँधों न नाव इस ठाँव, बंधु!
Posted on 29 Jul, 2013 12:48 PM
बाँधों न नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव, बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!

रचनाकाल : 23 जनवरी, 1950, ‘अर्चना’ में संकलित

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