बाढ़

(1)
पेय पय अंतर के स्नेह का पिलाती हुई,
खेल-सा खिलाती हुई,
नन्हीं उन लहरों को लेके निज गोद में,
मग्न थी अभी तो तू प्रमोद में;
जैसे कुल-लक्ष्मी निज अंतःपुर-चारिणी,
वैसे ही तटों के बीच भीतर विहारिणी,
तू थी महा शोभामयी
नित्य नई;
यमुने हे! तेरा वह शांत रूप सौम्याकार,
जान पड़ता था नहीं अंथःस्तल का विकार;
चंचला की चंचलता-तुल्य हे पयःस्विनी!
तेरी यह लोकलीला थी न आत्मघातिनी;

किंतु आज एकाएक
छोड़ के सभी विवेक,
मुक्तकेशी चंडी-सम होकर भयंकरा
करती हुई त्वरा,
बाहर तू आपे से स्वयं ही आज हो गई;
आप अपने को भी डुबो गई-
भीषण दुरंत इस बाढ़ में बिना विचार!
अपने ही ऊपर स्वयं प्रहार!
तुझको हुआ क्या ताप कोई कड़ा
जिससे उबल तुझे जाना पड़ा?
जननी तू तारिणी!
हो गई क्यों सहसा अपत्य-नाशकारिणी?
आश्रित तटों को तोड़-ताड़कर
ग्रामों को उजाड़कर
धूल में तू लोटने गई कहाँ,
करके मलिन देह क्या मिला तुझे वहाँ?

(2)
वृंदावन तेरे पदस्पर्श कर
तट पर-
अपने ही भीतर विहार करता था जहाँ;
कांत लता-कुंजों में
विकच कदंब तरु-पुंजों में
कलकल-नाद तेरा श्रांति हरता था जहाँ,
प्रातःकाल आके कुल बालाएँ
तुझको चढ़ाती थीं मनोज्ञ मंजु मालाएँ,
दिन-भर उत्सव की धूमधाम
लेने ही न देती थी मुझे विराम
रेणु के कणों में भी प्रभूत काल से जहाँ,
जहाँ-तहाँ
लिखित कथा थी वनमाली की;
भव्य भाव-शाली की
सकल शिराएँ किसी मौन वेणुनाद से
पुलक-विषाद से
गुंजारित होती थीं,
पुण्यस्मृति-सागर में मन को डुबोती थीं;
आज वही दीर्घाकार
चारों ओर हाहाकार
घूमता है हृदय विदीर्ण कर-कर के,
अश्रुजल-प्लावन से नेत्र भर-भर के!

(3)
छोटे-से तृणांकुर से ले के
आज तक-रात-दिन स्नेह-नीर दे के
अपने ही अंचल में जिनको खिलाया था,
अपने ही शीतल समीर से जिलाया था,
आज उन्हीं पादपों को एक ही झकोर में,
एक ही हिलोर में
जड़ से उखाड़ के बहा दिया,
हाय! यह क्या किया?
प्रतिदिन की ही भाँति तेरी दूब चर के
अगले पदों के बल नीचे को उतर के,
दीन यह श्यामा गाय
पीती थी सलिल हाय?
सहसा ज्यों वज्रपात,
इसी बीच तेरा हुआ प्रखर तरंगाघात,
बह के प्रवाह में
डूबी अविलंब वह अगम अथाह में!
हे सुदूरगामिनी!
स्वामी की कुशल, तुझे पूज-पूज करके,
चाहती थी जो निरीह कामिनी,
आज हा! उसी का वह प्राणधन
-कैसा यह क्रूरपन-
ले गई बहा के सर्वदा के लिए हर के!

सोते थे कुटी के बीच दीन वे
शंका-शोच-हीन वे,
ऐसे में कराल यह तेरी बाढ़ आ गई,
चारों ओर आर्तध्वनि छा गई,
किसको बचावे कौन,
ऐसे में किसी के काम आवे कौन;
चढ़ सके भाग जो चढ़े वे किसी वृक्ष पर
प्राणों पर खेलकर,
प्राणी प्राणीहीन-से
सहसा विपत्ति के प्रवाह में विलीन-से।
जिसके पवित्र उस आँगन में
पैदा हुए, खेले और कूदे बालापन में,
शांति की, सुखों की सौम्य मूर्ति-सी,
पुरुखों पुण्यस्मृतियों की एक पूर्ति-सी,
दीन की मढ़ैया वह हाय! एक पल में
डूब गई आँखों के समक्ष नीरतल में !

बूढ़ा बाप उठ भी सका न खाट पर से
दब मरा हाय! वहीं अपने ही घर से।
गृहिणी न तैर सकी,
करके प्रयत्न थकी;
बचने की चेष्टा की भयाकुलता,
अंत में निराशा की विपुलता,
छाती पर
लिखकर
वह अविलंब
डूबी हा! निरवलंब!

पानी में बहती हुई डाल पर
देहभार डालकर,
दाबे हुए बालक को काँख में,
प्लावित प्रवाह भर आँख में,
बहती अभागी एक माता यह;
छूट गया एकाएक हाय अरे! बच्चा वह,
डाल छोड़ जननी भी जाती है,
प्राण के भी प्राण का पता न किंतु पाती है!
कोसो तक कूल पर दोनों ओर
क्रूर दृश्य ऐसे ही महाकठोर।
जीवन ही त्रास हुआ दीनों का
धान्य-धन-गेह और आत्मजन-हीनों का!

(4)
धनिक हो!
देखो यह दृश्य यहाँ आकर तनिक तो।
बचता नहीं है कुछ बाढ़ में,
-काल की कराल क्रूर डाढ़ में-
सब कुछ जाता है!

कातर तुम्हारी ओर दृष्टि किए
बाढ़ की ही झोली लिए
दीनों का समूह यह हाय! दृष्टि आता है।
छोड़कर रुद्र रूप भिक्षुक का रूप धार
आई आज बाढ़ है तुम्हारे द्वार!
पर्व पर जाते हो स्वयं ही जहाँ,
आए हैं वहीं ये तीर्थ आप ही तुम्हारे यहाँ!
याचक खड़ा है पर्व ही स्वतः!
आगे आज हो के अतः
देकर दया का दान
कुछ तो मिटाओ क्षुधा इनकी महामहान।

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