सरि, धीरे बह री!

सरि, धीरे बह रही!
व्याकुल उर, दूर मधुर,
तू निष्ठूर, रह री!
तृण-थरथर कृश तन-मन,
दुष्कर गृह के साधन,
ले घट श्लथ लखती, पथ
पिच्छल तू गहरी।
भर मत री राग प्रबल
गत हासोज्ज्वल निर्मल-
मुख-कलकल छवि की छल
चपला-चल लहरी!

‘गीतिका’ में संकलित

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