दीप

धूसर संध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को,
अंधकार अवसाद कालिमा लिए रहा बरसाने को।
गिरि संकट में जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था,
कल-कल नाद नहीं था उसमें मन की बात न कहता था।
इसे जाह्नवी-सा आदर दे किसने भेंट चढ़ाया है,
अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया है।
जला करेगा वक्षस्थल पर बहा करेगा लहरी में,
नाचेंगी अनुरक्त विथियाँ रंजित प्रभा सुनहरी में।
तट तरु की छाया फिर उसका पैर चूमने जावेगी,
सुप्त खगों की नीरव स्मृति क्या उसको गान सुनावेगी।
देख नग्न सौंदर्य प्रकृति का निर्जन में अनुरागी हो,
निज प्रकाश डालेगा जिसमें अखिल विश्व संभागी हो।
किसी माधुरी स्मित-सा होकर यह संकेत बताने को,
जला करेगा दीप, चलेगा यह सोता बह जाने को।।

‘झरना’ में संकलित

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