Posted on 17 Aug, 2013 11:11 AMअभी गिरा रवि, ताम्र कलश-सा, गंगा के उस पार, क्लांत पांथ, जिह्वा विलोल जल में रक्ताभ प्रसार; भूरे जलदों से धूमिल नभ, विहग छंदों – से बिखरे – धेनु त्वचा – से सिहर रहे जल में रोओं – से छितरे!
दूर, क्षितिज में चित्रित – सी उस तरु माला के ऊपर उड़ती काली विहग पांति रेखा – सी लहरा सुंदर! उड़ी आ रही हलकी खेवा दो आरोही लेकर,
Posted on 16 Aug, 2013 02:40 PMप्रिय, जीवन-नद अपार, विशद पाट, तीव्र धार, गहर भंवर, दूर पार,- प्रिय, जीवन-नद अपार।
(1) इस तट पर ना जाने कब से रम रहे प्राण, ना जाने कितने युग बीत चुके शून्य मान, पर, अब की उस तट से आई है वेणु-तान, खींच रही प्राणों को बरबस ही बार-बार? प्रिय, जीवन-नद अपार।
Posted on 03 Aug, 2013 11:30 AMबहने दो, रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है, यौवन-मद की बाढ़ नदी की किसे देख झुकती है? गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो- अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो। सुना, रोकने उसे कभी कुंजर आया था, दशा हुई फिर क्या उसकी? फल क्या पाया था?
Posted on 30 Jul, 2013 12:44 PMकिस अनंत का नीला अंचल हिला-हिलाकर आती हो तुम सजी मंडलाकार? एक रागिनी में अपना स्वर मिला-मिलाकर गाती हो ये कैसे गीत उदार? सोह रहा है हरा क्षीण कटि में, अंबर शैवाल, गाती आप, आप देती सुकुमार करों से ताल। चंचल चरण बढ़ाती हो, किससे मिलने जाती हो? तैर तिमिर-तल भुज-मृणाल से सलिल काटती, आपस में ही करती हो परिहास, हो मरोरती गला शिला का कभी डाँटती,