आरे, गंगा के किनारे

आरे, गंगा के किनारे
झाऊ के वन से पगडंडी पकड़े हुए
रेती की खेती को छोड़कर, फूँस की कुटी;
बाबा बैठे झारे-बहारे।
हवाबाज ऊपर घहराते हैं,
डाक सैनिक आते-जाते हैं,
नीचे के लोग देखते हैं मन मारे।

रेलवे का पुल बँधा हुआ है,
तिनके की टट्टी के ठाट है,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं,
कहते हैं, कितने तारे!

बाबा साधक हैं और कढ़े भी हैं,
खाहए की पोथियाँ पढ़े भी हैं,
आँखों में तेज है, छाया है,
उस छवि की गेह सिधारे!

‘हंस’ मासिक, बनारस, दिसंबर, 1944। ‘बेला’ में संकलित

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