पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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कुंज कुटीरे यमुना तीरे
Posted on 22 Jul, 2013 12:14 PM पगली तेरा ठाट! किया है रतनांबर परिधान,
अपने काबू नहीं, और यह सत्याचरण विधान!

उन्मादक मीठे सपने ये, ये न अधिक अब ठहरें,
साक्षी न हों, न्याय-मंदिर में कालिंदी की लहरें।

डोर खींच, मत शोर मचा, मत बहक, लगा मत जोर,
माँझी, थाह देखकर आ तू मानस तट की ओर।

कौन गा उठा? अरे! करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?
इसी कैद के बंदी हैं वे श्यामल-गौर-शरीर।
ये नदियाँ कुछ गातीं
Posted on 19 Jul, 2013 11:58 AM गिरि, मैदान, नगर, निर्जन में एक भाव में मातीं।
सरल कुटिल अति तरल मृदुल गति से बहु रूप दिखातीं।
अस्थिर समय समान प्रवाहितये नदियाँ कुछ गातीं।
चली कहाँ से, कहाँ जा रहीं, क्यों आईं, क्यों जातीं?

इन्हें देखकर क्यों न लोग आश्चर्य प्रकट करते हैं।
इनके दर्शन से निज मन का कष्ट न क्यों हरते हैं?
जहाँ लता तृण में हैं केवल झाग प्रतिष्ठा पाते।
महानदी -2
Posted on 19 Jul, 2013 11:52 AM कर रहे महानदी! इस भाँति करुण-क्रंदन क्यों तेरे प्राण?
देख तव कातरता यह आज, दया होती है मुझे महान्।
विगत-वैभव की अपने आज, हुई क्या तुझे अचानक याद?
दीनता पर या अपनी तुझे, हो रहा है आंतरिक विषाद?

सोचकर या प्रभुत्व-मद-जात, कुटिलता-मय निज कार्य-कलाप।
धर्म-भय से कंपित-हृदय, कर रही है क्यों परिताप?
न कहती तू अपना कुछ हाल, ठहरती नहीं जरा तू आज।
महानदी-1
Posted on 19 Jul, 2013 11:49 AM कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप
कलकल मय निर्मल जलधारा; लहरों की है छटा अनूप
तुझे देखकर शैशव की हैं स्मृतियाँ उर में उठती जाग
लेता है कैशोर काल का, अँगड़ाई अल्हड़ अनुराग
सिकता मय अंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद
मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीड़ा कौतुक विविध विनोद
नीर-तीर वानीर निकट वह सैकत सौधों का निर्माण
तटिनी के प्रति
Posted on 19 Jul, 2013 11:37 AM अरी ओ तटिनी, अस्थिर प्राण
कहाँ तू करती है प्रस्थान?
कंठ में है अविरल कल-कल
अमल जल आँखों में छल-छल
नहीं चल-चल में पल भी कल
चपल-पल-पल चंचल-अंचल
रुदन है या यह तेरा गान?

चरण में तन में कुछ कंपन
निरंतर नुपूर का निक्वण
नयन में व्याकुल-सी चितवन
भ्रमरियों का यह आवर्तन
विवर्तन परिवर्तन, नर्तन
कभी मुख पर नव अवगुंठन
आमंत्रण
Posted on 19 Jul, 2013 11:31 AM दृग के प्रतिरूप सरोज हमारे उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ,
जल बीच कलंव-करंवित कूल से दूर छटा छहराती जहाँ,
घन अंजन वर्ण खड़े तृण जाल की झाईं पड़ी दरसाती जहाँ,
बिखरे बक के निखरे सित पंख बिलोक बकी बिक जाती जहाँ,
द्रुम अंकित, दूब भरी, जलखंड-जड़ी धरती छवि छाती जहाँ,
हर सीरक-हेम-मरक्त-प्रजा, ढल चंद्रकला है चढ़ाती जहाँ,
गंगा
Posted on 14 Jul, 2013 09:46 AM यह ‘घट’ इतना कहां हाय! जो इसमें रहती गंगा
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू, बहती गंगा

देखे हैं कितने ‘युग’ तूने क्या कहती है गंगा
तुझसे बुझती रहे चिता वह, जो दहती है गंगा

आज हमारे पाप-ताप ही तू सहती है गंगा
‘फूल’ भेंट के साथ बाँह यह तू गहती है गंगा

बहती रह इस महा मही पर मेरी महती गंगा
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू बहती गंगा।

सुरसरि तीर
Posted on 13 Jul, 2013 05:48 PM समयोचित संदेश उन्हें प्रभु ने दिए,
सबके प्रति निज भाव प्रकट सबने किए।
कह न सके कुछ सचिव विनीत विरोध में,
उमड़ी करुणा और प्रबोध-निरोध में।
देश सुमन्त्र – विषाद हुए सब अनमने,
आए सुरसरि – तीर त्वरित तीनों जने।
बैठीं नाव – निहार लक्षणा – व्यंजना,
‘गंगा में गृह’ वाक्य सहज वाचक बना।

बढ़ी पदों की ओर तरंगित सुरसरी,
प्रेमधारा
Posted on 08 Jul, 2013 01:21 PM उसका ललित प्रवाह लसित सब लोको में है।
उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है।।
उसकी क्रिड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है।
उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है।
मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही।
वसुंधरा तल पर वही लोकोत्तरता से बही।।1।।

रवि किरणें हैं इसी धार में उमग नहाती।
इसीलिए रज तक को हैं रंजित कर जातीं।।
कला कलानिधी कलित बनी पाकर वह धारा।
जल-विहार
Posted on 04 Jul, 2013 03:34 PM नाव चढ़ि दोऊ इत उत डोलैं।
छिरकत कर सों जल जंत्रित करि गावत-हँसत कलौलैं।
करनधार ललिता अति सुंदर सखि सब खेवत नावैं।
नाव-हलनि मैं पिया-बाहु मैं प्यारी डरि लपटावैं
जेहि दिसि करि परिहास झुकावहिं
सबही मिलि जल-यानै।
तेही दिसि जुगुल सिमिट झुकि
परहिं सो छबि कौन बखाने।
ललिता कहत दाँ अब मेरी तू मों हाथन प्यारी।
मान करन की सौंह खाई तौ हम पहुंचावैं पारी।
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