Posted on 19 Jul, 2013 11:58 AMगिरि, मैदान, नगर, निर्जन में एक भाव में मातीं। सरल कुटिल अति तरल मृदुल गति से बहु रूप दिखातीं। अस्थिर समय समान प्रवाहितये नदियाँ कुछ गातीं। चली कहाँ से, कहाँ जा रहीं, क्यों आईं, क्यों जातीं?
इन्हें देखकर क्यों न लोग आश्चर्य प्रकट करते हैं। इनके दर्शन से निज मन का कष्ट न क्यों हरते हैं? जहाँ लता तृण में हैं केवल झाग प्रतिष्ठा पाते।
Posted on 19 Jul, 2013 11:52 AMकर रहे महानदी! इस भाँति करुण-क्रंदन क्यों तेरे प्राण? देख तव कातरता यह आज, दया होती है मुझे महान्। विगत-वैभव की अपने आज, हुई क्या तुझे अचानक याद? दीनता पर या अपनी तुझे, हो रहा है आंतरिक विषाद?
सोचकर या प्रभुत्व-मद-जात, कुटिलता-मय निज कार्य-कलाप। धर्म-भय से कंपित-हृदय, कर रही है क्यों परिताप? न कहती तू अपना कुछ हाल, ठहरती नहीं जरा तू आज।
Posted on 19 Jul, 2013 11:49 AMकितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप कलकल मय निर्मल जलधारा; लहरों की है छटा अनूप तुझे देखकर शैशव की हैं स्मृतियाँ उर में उठती जाग लेता है कैशोर काल का, अँगड़ाई अल्हड़ अनुराग सिकता मय अंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीड़ा कौतुक विविध विनोद नीर-तीर वानीर निकट वह सैकत सौधों का निर्माण
Posted on 19 Jul, 2013 11:37 AMअरी ओ तटिनी, अस्थिर प्राण कहाँ तू करती है प्रस्थान? कंठ में है अविरल कल-कल अमल जल आँखों में छल-छल नहीं चल-चल में पल भी कल चपल-पल-पल चंचल-अंचल रुदन है या यह तेरा गान?
चरण में तन में कुछ कंपन निरंतर नुपूर का निक्वण नयन में व्याकुल-सी चितवन भ्रमरियों का यह आवर्तन विवर्तन परिवर्तन, नर्तन कभी मुख पर नव अवगुंठन
Posted on 13 Jul, 2013 05:48 PMसमयोचित संदेश उन्हें प्रभु ने दिए, सबके प्रति निज भाव प्रकट सबने किए। कह न सके कुछ सचिव विनीत विरोध में, उमड़ी करुणा और प्रबोध-निरोध में। देश सुमन्त्र – विषाद हुए सब अनमने, आए सुरसरि – तीर त्वरित तीनों जने। बैठीं नाव – निहार लक्षणा – व्यंजना, ‘गंगा में गृह’ वाक्य सहज वाचक बना।
Posted on 08 Jul, 2013 01:21 PMउसका ललित प्रवाह लसित सब लोको में है। उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है।। उसकी क्रिड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है। उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है। मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही। वसुंधरा तल पर वही लोकोत्तरता से बही।।1।।
रवि किरणें हैं इसी धार में उमग नहाती। इसीलिए रज तक को हैं रंजित कर जातीं।। कला कलानिधी कलित बनी पाकर वह धारा।