Posted on 26 Aug, 2013 12:21 PMप्रियतम! देखो ! नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-श्रृंगों को ठुकराकर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आई है!
समुद्र से मिल जाने के पहले इसने अपनी चिर-संचित स्मृतियां, अपने अलंकार आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहां वह एक परित्यकत केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है।
Posted on 26 Aug, 2013 11:32 AMतुम्हारी आंखों में उमड़ आई इन दो नदियों ने मुझे ऐसे डुबो लिया है जैसे गर्मियों की तपती दोपहरी में मेरे नगर की नदियां अपने संगम में मुझे डुबो लेती हैं।
गंगा-जमुना ही नहीं, मेरे नगर में- लोग कहते हैं-तीसरी नदी भी है-सरस्वती जो कभी दिखाई नहीं देती
जो कभी दिखाई नहीं देती, वह व्यथा है- जो दिल-ब-दिल बहती है,
Posted on 26 Aug, 2013 11:27 AMओ नदी! सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू। किंतु, दाई कौन? तू होती अगर, यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते। कौंधती रशना कमर में मछलियों की।
नागफनियों के न उगते झाड़, तट पर दूब होती, फूल होते। देखतीं निज रूप जल में नारियां। पांव मल-मल घाट पर लक्तक बहाकर तैरती तुझमें उतर सुकुमारियां।
Posted on 25 Aug, 2013 12:07 PMमैं वहीं हूँ,तुम जहाँ पहुँचा गए थे।
खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी, अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है। दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह व्याप्त हो जाती हवा-सी फैलकर सारे भवन में। खिड़कियों पर, फर्श पर, मसिपात्र, पोथी, लेखनी में रेत की कचकच; कलक की नोंक से फिर वर्ण कोई भी न उगता है। कल्पना मल-मल दृगों को लाल कर लेती।
Posted on 25 Aug, 2013 12:06 PM(पेड़ की उक्ति) क्या हुआ उस दिन? तुम्हें मैंने छुआ था मात्र सेवा-भाव से, करुणा, दया से। स्पर्श में, लेकिन, कहीं कोई सुधा की रागिनी है। और त्वचा के भी श्रणव हैं। स्पर्श का झंकारमय यह गीत सुनते ही त्वचा की नींद उड़ जाती, लहू की धार में किरणें कनक की झिलमिलाती हैं।
रोम-कूपों से उठी संगीत की झंकार, नाव-सी कोई लगा खेने रुधिर में।
Posted on 25 Aug, 2013 12:02 PMसंत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च- महाभारत 1 ।63।66 (स्त्री-पुरुषों के दो दल बनाकर सहगान के लिए : उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित। इसे ढिंढिया कहते हैं।)
स्त्री जाओ,लाओ,पिया, नदिया से सोन मछरी। पिया, सोन मछरी; पिया सोन मछरी। जाओ, लाओ, पिया नदिया से सोन मछरी।