पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

Term Path Alias

/sub-categories/books-and-book-reviews

गंगा कूल 2
Posted on 26 Aug, 2013 12:24 PM गंगा- कूल सिराने ओ लघु दीप-
मूक दूत से जाओ सिंधु समीप!

ढुलक-ढुलक! नयनों से आंसू धार!
कहां भाग्य ले उनके पांव पखार।

लाहौर : 1935

प्रियतम देखो 1
Posted on 26 Aug, 2013 12:21 PM प्रियतम! देखो ! नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-श्रृंगों को ठुकराकर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आई है!

समुद्र से मिल जाने के पहले इसने अपनी चिर-संचित स्मृतियां, अपने अलंकार आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहां वह एक परित्यकत केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है।
भीम-प्रवाहिनी नदी
Posted on 26 Aug, 2013 11:36 AM भीम-प्रवाहिनी नदी के कूल पर बैठा मैं दीप जला-जलाकर उसमें छोड़ता जा रहा हूं।

प्रत्येक दीप का विसर्जन कर मैं सोचता हूं- ‘यही मेरा अंतिम दीप है।’
अदृश्य नदी
Posted on 26 Aug, 2013 11:32 AM तुम्हारी आंखों में उमड़ आई
इन दो नदियों ने
मुझे ऐसे डुबो लिया है
जैसे गर्मियों की तपती दोपहरी में
मेरे नगर की नदियां
अपने संगम में मुझे डुबो लेती हैं।

गंगा-जमुना ही नहीं, मेरे नगर में-
लोग कहते हैं-तीसरी नदी भी है-सरस्वती
जो कभी दिखाई नहीं देती

जो कभी दिखाई नहीं देती, वह व्यथा है-
जो दिल-ब-दिल बहती है,
ओ नदी!
Posted on 26 Aug, 2013 11:27 AM ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।
किंतु, दाई कौन?
तू होती अगर,
यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते।
कौंधती रशना कमर में मछलियों की।

नागफनियों के न उगते झाड़,
तट पर दूब होती, फूल होते।
देखतीं निज रूप जल में नारियां।
पांव मल-मल घाट पर लक्तक बहाकर
तैरती तुझमें उतर सुकुमारियां।

किलकते फिरते तटों पर फूल-से बच्चे।
नदी और पीपल
Posted on 25 Aug, 2013 12:07 PM मैं वहीं हूँ,तुम जहाँ पहुँचा गए थे।

खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी,
अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है।
दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह
व्याप्त हो जाती हवा-सी फैलकर सारे भवन में।
खिड़कियों पर, फर्श पर, मसिपात्र, पोथी, लेखनी में
रेत की कचकच;
कलक की नोंक से फिर वर्ण कोई भी न उगता है।
कल्पना मल-मल दृगों को लाल कर लेती।
नदी और पेड़
Posted on 25 Aug, 2013 12:06 PM (पेड़ की उक्ति)
क्या हुआ उस दिन?
तुम्हें मैंने छुआ था
मात्र सेवा-भाव से, करुणा, दया से।
स्पर्श में, लेकिन, कहीं कोई सुधा की रागिनी है।
और त्वचा के भी श्रणव हैं।
स्पर्श का झंकारमय यह गीत सुनते ही
त्वचा की नींद उड़ जाती,
लहू की धार में किरणें कनक की झिलमिलाती हैं।

रोम-कूपों से उठी संगीत की झंकार,
नाव-सी कोई लगा खेने रुधिर में।
कोई पार नदी के गाता
Posted on 25 Aug, 2013 12:04 PM कोई पार नदी के गाता।

भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता।
कोई पार नदी के गाता।

होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता।
कोई पार नदी के गाता।

आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन,
सोन मछरी
Posted on 25 Aug, 2013 12:02 PM संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च- महाभारत 1 ।63।66
(स्त्री-पुरुषों के दो दल बनाकर सहगान के लिए : उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित। इसे ढिंढिया कहते हैं।)


स्त्री
जाओ,लाओ,पिया, नदिया से सोन मछरी।
पिया, सोन मछरी; पिया सोन मछरी।
जाओ, लाओ, पिया नदिया से सोन मछरी।

उसकी है नीलम की आँखें,
हीरे-पन्ने की हैं पाँखें,
गंगा की लहर
Posted on 24 Aug, 2013 04:14 PM (सहगान के लिए : उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित)

गंगा की लहर अमर है,
गंगा की।

धन्य भगीरथ
के तप का पथ।
गगन कँपा थरथर है।
गंगा की,
गंगा की लहर अमर है।

नभ से उतरी
पावन पुतरी,
दृढ़ शिव-जूट-जकड़ है।
गंगा की,
गंगा की लहर अमर है।

बाँध न शंकर
अपने सिर पर,
यह धरती का वर है।
गंगा की,
×