Posted on 24 Aug, 2013 11:30 AMमैं एक नदी सूखी सी कल मैं कलकल बहती थी उन्मुक्त न कोई बंधन क्वांरी कन्या सी ही थी पूजित भी परबस भी थी जब सुबह सवेरे सूरज मेरे द्वारे आता था सच कहूँ तो मेरा आँगन उल्लसित हो जाता था आलस्य त्याग कर मुझ में सब पुण्य स्थल को जाते जब घंटे शंख,अज़ान गूंजते थे शांति के हेतु मैं भी कृतार्थ होती थी उसमें अपनी छवि देकर
Posted on 23 Aug, 2013 11:20 AMप्रकाशमय किया है सूर्य ने जिसको चंद्रमा ने वर्षा की है रजत किरणों की प्रसन्न हैं झिलमिल तारे जिसे देख कर फूलों ने भी बिखेरी है सुगंध हंसकर ऐसी न्यारी सुन्दर वसुंधरा ये है प्रकृति ने संवारा है इसको बड़े श्रम से वन,पर्वत,घाटी,नदियाँ,झरने सभी रंग भरते हैं इसमें सतरंगी समय के साथ इसकी सुन्दरता बढ़ती ही जा रही थी असीम
Posted on 20 Aug, 2013 10:38 AMनन्हीं निर्मल जल की धारा जब धरा से फूट निकलती है बच बाधाओं से कुछ सकुचाती निज श्रम से मार्ग बनाती है कोई साथ नहीं कुछ ज्ञात नहीं सब कुछ ही तो अन्जाना है उत्साहित हो अपने बल पर आगे ही आगे बढ़ते जाना है संकल्प लिए दृढ़ निष्ठा से उठती गिरती कल कल करती कहीं उछल कूद कर गाती सी चट्टानों से भी टकरा जाती उसके कृत से आकर्षित हो
Posted on 19 Aug, 2013 12:40 PMएक तरफ बर्बाद बस्तियाँ-एक तरफ हो तुम। एक तरफ डूबती कश्तियाँ-एक तरफ हो तुम। एक तरफ है सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम। एक तरफ है प्यासी दुनिया- एक तरफ हो तुम।
Posted on 17 Aug, 2013 11:26 AMगलित ताम्र भव : भृकुटि मात्र रवि रहा क्षितिज से देख, गंगा के नभ नील निकष पर पड़ी स्वर्ण की रेख! आर-पार फैले जल में घुलकर कोमल आलोक, कोमलतम बन निखर रहा, लगता जग अखिल अशोक!
नव किरणों ने विश्वप्राण में किया पुलक संचार, ज्योति जड़ित बालुका पुलिन हो उठा सजीव अपार!