Posted on 27 Aug, 2013 11:36 AMबढ़ी है इस बार गंगा खूब दियारों पर गांव कितने ही गए हैं डूब किंतु हम तो शहर के इस छोर पर हैं देखते हैं रात-दिन जल-प्रलय का ही दृश्य पत्थरों से बंधी गहरी नींव वाला किराये का घर हमारा रहे यह आबाद पुराना ही सही पर मजबूत रही जिसको अनवरत झकझोर क्षुब्ध गंगा की विकट हिलकोर सामने ही पड़ोसी के- नीम, सहजन, आंवला, अमरूद हो रहे आकंठ जल में मग्न
Posted on 26 Aug, 2013 04:53 PM‘उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!’ अनमना भी सुन सका मैं गूँजते से तप्त अंतःस्वर तुम्हारे तरल कूजन में। ‘अरे, उस धूमिल विजन में?’ स्वर मेरा था चिकना ही, ‘अब घना हो चला झुरमुट। नदी पर ही रहें, कैसी चाँदनी-सी है खिली! उस पार की रेती उदास है।’ ‘केवल बातें! हम आ जाते अभी लौटकर छिन में-’ मान कुछ, मनुहार कुछ, कुछ व्यंग्य वाणी में।
Posted on 26 Aug, 2013 03:50 PMरेत का विस्तार नदी जिसमें खो गई कृश-धार : झरा मेरे आँसुओं का भार -मेरा दु:ख धन, मेरे समीप अगाध पारावार- उसने सोख सहसा लिया जैसे लूट ले बटमार। और फिर आक्षितिज लहरीला मगर बेट्ट सूखी रेत का विस्तार- नदी जिसमें खो गई कृश-धार
किंतु जब-जब जहां भी जिसने कुरेदा नमी पाई : और खोदा- हुआ रस-संचार :
Posted on 26 Aug, 2013 03:20 PMहम नदी के द्वीप हैं। हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए। वह हमें आकार देती है। हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत कूल, सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं। स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के
Posted on 26 Aug, 2013 03:16 PMइसी जमुना के किनारे एक दिन मैंने सुनी थी दुःख की गाथा तुम्हारी और सहसा कहा ता बेबस : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’ गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकाकर की।
इसी जमुना के किनारे आज मैंने फिर कहा है वह : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’ और उत्तर में सुनी है दु:ख की गाथा तुम्हारी, गहे हैं दो हाथ मौन समाधि में उत्सर्ग की।
Posted on 26 Aug, 2013 12:43 PMहम नदी के साथ-साथ सागर की ओर गए पर नदी सागर में मिली हम छोर रहे: नारियल के खड़े तने हमें लहरों से अलगाते रहे बालू के ढूहों से जहां-तहां चिपटे रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल हमारा मन उलझाते रहे नदी की नाव न जाने कब खुल गई नदी ही सागर घुल गई हमारी ही गांठ न खुली दीठ न धुली हम फिर, लौटकर फिर गली-गली
Posted on 26 Aug, 2013 12:39 PMऐसा क्यों हो कि मेरे नीचे सदा खाई हो जिसमें मैं जहां भी पैर टेकना चाहूं भंवरे उठें, क्रुद्ध; कि मैं किनारों को मिलाऊं पर जिनके आवागमन के लिए राह बनाऊं उनके द्वार निरंतर दोनों ओर से रौंदा जाऊं? जबकि दोनों को अलगाने वाली नदी निरंतर बहती जाए, अनवरुद्ध?
Posted on 26 Aug, 2013 12:37 PMद्वीप, नौका, नदी, सागर और हमारी रुपकल्पी चेतना-सभी मिलकर वह समग्र बिंदु बनाते हैं जिसमें हमारी और एक निरपेक्ष चेतना हमें अपने सच्चे रूप की पहचान कराती है – हम जो टिके हैं और बीत रहे हैं जो।
Posted on 26 Aug, 2013 12:25 PMनदी की बांक पर छाया सरकती है कहीं भीतर पुरानी भीत धीरज की दरकती है कहीं फिर वेध्य होता हूं
दर्द से कोई नहीं है ओट जीवन को व्यर्थ है यों बांधना मन को पुरानी लेखनी जो आंकती है आंक जाने दो किन्हीं सूने पपोटों को अंधेरे विवर में चुप झांक जाने दो पढ़ी जाती नहीं लिपि दर्द ही