Posted on 01 Dec, 2013 03:20 PMमेरी रीढ़ की हड्डी में यह जो सांप घुसकर फुफकार रहा है समुद्र की ऊब है दूर-दूर तक फैला गहरा है समुद्र जो शराब का रंग और तीखापन ओढ़े हुए हर ओर छा गया है सिल्वटहीन सब कुछ बेहोश है हवा का एक-एक कदम लड़खड़ा रहा है
बड़ा डर लगता है बीच समुद्र में आ गया हूं चिनार के पत्तों-सा कांप रहा है रोम-रोम
Posted on 29 Nov, 2013 09:27 AMपर्वतों उपत्यकाओं में पली बढ़ी हूँ मैं हिमनदों की बहुत लाडली हूँ मैं मुझसे ये धरा खिले जिसे गगन लखे ज्योतिर्मय नव विहान की छटा दिखे स्वयं गरल समेट कर सुधा प्रवाहती मैं क्या कहूं इस मही का प्राण हूँ मैं ही कलकल ध्वनि लिए शाश्वत गान गा रही पग बंधे हैं किंतु इच्छा मुक्ति दान की लक्ष्य था अनंत किंतु
Posted on 28 Oct, 2013 04:00 PMउस पार से आ रही है नाव इस ओर
गलही पर बैठा उस ओर मुँह किए डाँड़ खेता आ रहा है नाविक इस तरफ उसकी पीठ है एक साँवली खुली मल्लाह पीठ उस पीठ में भी मछलियाँ फड़कती हैं गोया एक टुकड़ा नदी हो वह
वह है बीरू मल्लाह बड़कों में लड़का, लड़कों में बड़का कौन कहेगा, सातवीं बार सातवीं फेल हो रहा सहज ही
Posted on 28 Oct, 2013 03:59 PMगंगा में स्नान कर रही वह बूढ़ी मैया दो ओर से बाँहे पकड़े बेटे-बहू को लिए, सीढ़ियाँ उतरती आई थी जल-तल तक जो कूँथती-कहरती निहुरी-दुहरी वह बूढ़ी मैया, दूर से आई तुम क्या जानों अपने को प्राणों तक प्रक्षालित कर रही है, पवित्र कर रही है महाप्रस्थान-प्रस्तुत, डगमग पाँवों वाली वह बूढ़ी मैया
Posted on 28 Oct, 2013 03:58 PMगंगातट, शुरू-रात की बेला उस पार पेड़ों की छायाभासी पट्टी के पीछे चंद्रोदय के पूर्वाभास-सा फैला उजाला एक बस्ती की बत्तियों का समवेत प्रकाश-स्वर जिसे आँखें सुनती हैं, अनायास जब बँधकर देखती हैं पार तट के क्षितिज पर ईशान कोण में वह तुम्हारा तारा है यानी मेरा तारा एक खासा प्रभावान तारा अभी तक जिसका कोई नाम नहीं रखा गया