मल्लाह

(निराला और त्रिलोचन को)


वैसे इन मल्लाहों में है भुजबल इतना
एक डाँड़ में बीस हाथ गंगा की धारा
कर जाते हैं पार, चट्ट कर जाते पूरी
बोतल फिर भी पलक नहीं ये झपकाते हैं

और अक्ल भी बड़ी तेज है सूँघ हवा को
बतला सकते हैं बरसेगा कब पानी
पैनी दृष्टि थाह लेती है पलक झपकते
डगमग लहरों के नीचे सारी गहराई

मगर जरा हालत तो इनके घर की देखो
खस्ता टप्पर बच्चे नंग-धड़ंगे भूखे
कलह औरतों में दिन-रात मची रहती है
लट्ठ एक-दूसरे के सर, अकसर बजते हैं

पढ़ने-लिखने का तो खैर कहा क्या जाए
सुल्फा-गाँजा दारू-कौड़ी यही शुगल है
प्रतिभाशाली दम-खम वाले जो होते हैं
चोर चकारे रहजन-डाकू बन जाते हैं

तैराकी में होते सब अलबत्ता माहिर
हर जलचर के साथ घरजँवाई का नाता
नदी खेत है उनका, नदी सड़क है उनकी
वही कार्यशाला है, वही पाठशाला है

अपना जीवन इनका पर ठहरा पानी है
एक लहर भी नहीं जहाँ सच्चे हुलास की
दुःख ही दुःख है काई-सा, कीचड़-सा गुस्सा
भूख और अज्ञान किलबिलाते कीड़ों से

धनी बात के यों होते, मेहनत के पक्के
कोई ले जाता इन तक भी सत जीवन का
दुनिया का समाज का तो ये बड़े जुझारू
साबित होते पर इनकी सुध नहीं किसी को

वह इकलौती नाव दीखती जो इस पुल से
संध्या के उड़ते रंगों की पृष्ठभूमि पर
ठिठकी-ठिठकी आकर्षण से भरी उदासी
घर जाने की हूक जागती सूने मन में

उस पर भी अपने घर लौट रहा है एक मल्लाह
चिंताओं से व्यग्र एक थका हुआ आदमी।

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