पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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नदी में
Posted on 05 Oct, 2013 03:02 PM नदी में डूबता है महल
मेहराब से हिलगा है एक पुराना गीत
स्वर में उभरता है एक खँडहर
दहलीज पर ठिठकती है कथा
उसके बीच में उड़कर आ बैठता है एक पक्षी
पंख में लिपटा हुआ बचपन
सुबह देर से उठने पर छूट गई स्कूल-बस
पहिए में लिपटा कीचड़
पानी में मिलते हुए न जाने कितने पानी
जानते हुए भी नदी का
बीच प्रलय में झपकी लेना
आँख में सूख गया आँसू
शुभस्त्रवा
Posted on 05 Oct, 2013 03:00 PM एक ठो नदी का नाम : शुभस्त्रवा। उल्लेख पुराण में। प्राचीन नदी : पता नहीं किस वन-प्रांतर में बहती है। कैसी वनराजि है, उसके तट पर : कौन-सी निर्झरणियाँ उसमें आकर लीन होती हैं। कहाँ है उसका उद्गम : कितना सूक्ष्म और लगभग अलक्षित। आरंभ में क्षीणतोया। धीरे-धीरे नदी का आकार लेती हुई। जल-भरी, जल वनस्पतियों-भरी, मछलियों-भरी। स्वरपूरित और रूपतरंग से उच्छल। बचपन की नदी : प्राचीनों के यहां युवा नदी। देवताओं से
दूर देश में नदी, भाग -3
Posted on 05 Oct, 2013 02:58 PM नदी के पास स्मृतियाँ हैं अनेकों,
उनकी भी जो
अब नहीं रहे। उनकी भी जो
आए ते कभी उसके किनारे।
किसी भी नदी के पास
स्मृतियाँ हैं अनेकों।

दिलाती हैं याद मुझे
देश की नदियों की
नदी दूर देश में!
कहाँ गया हूँ मैं सबके किनारे
पर, गया हूँ जिनके किनारे
वे सब आती हैं याद।
दूर देश में।

निकलती है धूप।
घिरती है रात।
दूर देश में नदी, भाग-2
Posted on 05 Oct, 2013 02:56 PM रात से पहले
पेड़ों की छायाएँ
किनारे पर
खिड़की पर मैं।

उतरेगी रात।
मिट जाएँगी छायाएँ।
नहीं दिखेंगी पगडंडी भी
इधर के पेड़ों तक जाती हुई।

सुबह होगी
फिर दिखेगी पगडंडी
फिर दिखेगी नदी
छायाएँ बस चुकी होंगी
स्मृति के कोटर में

स्मृति के कोटर
के साथ
मैं जाऊँगा नदी किनारे
तब मुझे नदी और ज्यादा
दूर देश में नदी, भाग -1
Posted on 05 Oct, 2013 02:54 PM यहां से सबने लिखा है
चिट्ठियों में
जहाँ वे ठहरे हैं, उसके सामने नदी है।
पेड़ हैं। हरियाली है।
सबने लिखा है।
मैंने भी लिखा है- घर पर, दोस्तों को-
‘यहाँ नदी है’

लिखकर खुश हुआ हूँ
कि नदी है।
देखों अगर पास से बहती है मंद-मंद।
देखो अगर ऊपर से
ठहरा हुआ पानी है।
शांत नदी
हलचल मचाती है मन में।
सुबह गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के किनारे चाय पीते हुए
Posted on 05 Oct, 2013 02:49 PM काँव कौंवों की।
उतरतीं सूर्य किरणें।
उधर अब भी- उस तरफ
कुछ दूर, कोहरा तना।

पीठ पीछे सो रहे या
अभी जागे घर।
वृक्ष, अपनी जगह पर,
कुछ सिहरती-सी हवा।

जल लहरियाँ डोंगियाँ नावें
आँख की ही भाँति
उभरतीं उत्सुक।
इधर को या उधर को
कुछ झुक!

वहाँ, उस विस्तार में वह
एक मोटर बोट-
दृश्य की ही ओट
वाराणसी में गंगा के तट पर एक शाम
Posted on 05 Oct, 2013 02:47 PM सांध्य तट
आहट
निकट
अँधियार की-

चमकती रेती
वहाँ उस
पार की!

वृक्ष चुप-से खड़े
उड़ती हुईं
चिड़ियाँ
दूर!

रह-रह
बोलती कोयल।
उभरती नाव-
छोटी नाव के आकार की-

घाट
आकृतियाँ
टँगी हैं झंडियाँ कुछ,
थाह कुछ तो
सोचती
मँझधार की!

न जाने किस रंग में
क्या कहेगी,
नदी के जल में
Posted on 05 Oct, 2013 02:45 PM उसने कपड़े
उतारे और
उतर गई
जल में
खलबली मच गई
पल में!
मल-मल नहाने लगी
वह
हलचल हुई
लहरें उठीं
किनारों को छुआ
जैसे कुछ हुआ
किनारे हँसने लगे।

घाट पर
Posted on 04 Oct, 2013 04:16 PM दोनों प्रसन्नता की खोज में
ले आए ढेर सारे मैले कपड़े

यह क्या कम बड़ी बात है
उन्हें नहीं खोजना पड़ता पानी
वे सिर्फ उसके पास पहुँचते हैं
और फैला देते हैं अपनी थकान

पानी का स्पर्श शीतल होता है
खड़े होकर लगता है
लिपटे हैं दो तन शून्य में
और शून्य अपने ममत्व से
भर रहा संगीत जिनमें

लेकिन पानी तो रोटियाँ पाने का एक जरिया है
नाच
Posted on 04 Oct, 2013 04:14 PM नाच में शामिल थे
कालिये की पूँछ
और कालिये का फन
डूबा था जमुना में
थमे पैर के नीचे का फन

उठ आई थी जमुना
अधर में उठे नाचते पैर के साथ-साथ।

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