पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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इससे क्या
Posted on 15 Oct, 2013 01:40 PM हूँ तो पत्थर ही
नहीं पर वह
तराशा जिसे नदी ने कुछ दिन
और फिर तट पर फेंक दिया।

उसी के पाट में तो हूँ
अभी तक-
इससे क्या यदि
तन्वंगी इस नदी का जल
आज मुझ तक नहीं भी पहुँचे?

जुलाई, 1992

वहां नहीं है नदी
Posted on 15 Oct, 2013 01:39 PM वहां नहीं है नदी
लिया है बदल अपना रास्ता उसने।
घाट है सिर्फ, पुराना
सीढ़ियाँ जिसकी मिट्टी में दबी हैं
पर बजिद है वह
यही है तीर्थ उसका।
जहाँ चाहे नदी बहती रहे
वह तरा था यहीं
चाहे डुबकी-भर ही सही।

इसी जिदमें एक सूखा पाट
खोदे जा रहा है वह।

दिसंबर, 1989

नदी
Posted on 15 Oct, 2013 01:38 PM (1)
नदी ने जो सहा
नदी जानती है
उसके दो किनारे हैं
उनका शासन भी
वह मानती है
जहाँ भी वह जाती है
उन्हें अपने साथ पाती है
(2)
नदी तो बहती है, बहेगी
वह थिर क्यों रहेगी

(3)
नदी को समुद्र से
जा मिलने की इच्छा है
तीव्र इच्छा

लेकिन समुद्र
उसे,केवल उसे, चाहता है
बाढ़ में
Posted on 15 Oct, 2013 01:37 PM बाढ़ में बहते जाते हैं पुरखों के संदूक सारा माल-मता
औजार
हमारे मामूली रोजगार के
कागज-पत्तर जिनमें थे
हारों के दुखों के हाल
जिन्हें कोई दर्ज नहीं करता
कला कर्म की भाषा के धंधे और इतिहास
जिनसे बेखबर रहते हैं
हर कहीं गाफिल एक से

पानी में दिखता है कभी तेज बहाव में
छटपटाता हुआ कोई
बेमानी मगर उसकी छटपटाहट बिलकुल निरुपाय
पनघट पर भगीरथ
Posted on 15 Oct, 2013 01:35 PM (1)
आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
पवित्र पानी खाता है पछाड़
कटता है पहाड़ बनता है रास्ता

वेग, गति और प्रवाह से गंगा बन गई नदी
नदी की देह में मटमैला गाद
बनते जाते हैं फैलते जाते हैं दोआब
नदी के मुंह पर झाग ही झाग

आगे-आगे भगीरथ पीछे-पीछे गंगा
तल मल बहता है जैसे पुरखों के शव

पानी के पहिए पर पाँव और बीच भँवर घोड़े
एक नदी
Posted on 10 Oct, 2013 10:15 AM एक नदी बाल्यावस्था
लांघ अल्हड़ यौवन का
स्पर्श मात्र ही कर पाई थी
कि बाँध दी गई
उन्मुक्तता उसकी
यह समझाकर कि
इस प्रकार कल्याण
कर पाएगी वो
जन जीवन का
नदी सहर्ष स्वीकार
करती है इस बंधन को
बिना विचारे आगत क्या है
किन्तु यह क्या
उसके संगी साथी
झरने, प्रपात,नन्ही धाराएं
सभी तो लुप्त हो गए
सिर्फ बहता चलता है जल
Posted on 05 Oct, 2013 03:09 PM नदी बिलकुल शांत कभी नहीं हो पाती चाहकर भी
कोई न कोई आवाज या सन्नाटा गूँजता हुआ-सा
उसके तट पर उसके मझधार में किसी चट्टान से नीरव टकराते उसके जल में।

नदी बहती है धरातल पर सूखकर रेत के नीचे थमकर
प्रतिपल जाती हुई अपने विलय की ओर
फिर थी उच्छल
धूप अँधेरे लू-लपट
सुख की झूलती हुई डालों
दुःख के खिसकते-ढहते ढूहों से
हर सर्वनाम को लीलता हुआ
शाम देर गए
Posted on 05 Oct, 2013 03:07 PM शाम देर गए घर लौटना है
काम से
उसे, जंगल में पछिया गई चिड़िया को
और सुनसान के गले में पड़ी हँसुली-सी
ईब को।
कौन लौटता है : वह या ईब
या सिर्फ उसका घर
सरककर पास आ जाता है।

‘एक पतंग अनंत में’ में संकलित, 1983

वहीं से
Posted on 05 Oct, 2013 03:05 PM वहीं से लौटना होगा घर
वहीं से फूटेगी ईब
वहीं से होगा एक शुभारंभ।
वहीं से
कारीगर गारे से भरेगा दरारें
वहीं से जलघास टटोलेगी अतल
वहीं से वह करेगी स्वीकार।

‘एक पतंग अनंत में’ में संकलित, 1983

ईब के किनारे
Posted on 05 Oct, 2013 03:04 PM ईब के किनारे
वह थी।
उसका अप्रतिहत लावण्य था।

ईब का पानी न उसे जानता था
और न उस लालची आकाश को जो
उस पर झुका था।

ईब के किनारे लोग थे
अनजान लेकिन व्यस्त।

रेत पर चट्टानों के नीचे
रेंगते कीड़ी-मकोड़ों का मनोरम संसार था

मैंने पहली बार नाम सुना ईब का
मैंने नहीं देखा ईब को
फिर भी पाया
ईब के किनारे वह ईब थी
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