पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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रेवा रूप कथा
Posted on 03 Dec, 2013 12:18 PM नैहर नरबदा के रूप कुमारी, थिरकत अंग पराग झरे।
रसना रंगी रंग अंग, रूप में रूप के बौर फरे।

रूपमती जागी चहुंदिसि में, रूप को रूप की सुध न रही।
रूपहि गावे रूप को ध्यावे, रूप ने रूप को वीणा गही।

रूप की राजि में भूप शिकारी, रूप की ओट से रूप निहारे।
रूप पे रीझि के बाज बहादुर, बन-बागन फिरे सांझ-सकारे।
नदी पर अंधेरा
Posted on 03 Dec, 2013 12:17 PM आखिरी स्टीमर के
चलने का वक्त
अंधेरे के
नदी पर छाने का वक्त
होता है।

एक संयत बेचैनी से भरी
नदी
कुछ उभर आती है
आसमान की ओर।

आसमान
आधा नदी के भीतर
और आधा नदी के करीब
उसके बाहर होता है।
उजाला
एक ललाए कोने में
सिमटता जाता है।

सूरज
आधा नदी के छोर पर
डूबता है
और आधा
पुल के नीचे
आधे सिर का दर्द
Posted on 03 Dec, 2013 12:15 PM नौका हिलती है
रक्त की नदी में

इस तरफ पहाड़
उस तरफ बांध
झरने की ऊंचाई
या कि गहराई
कहीं-कहीं डुबोने को
उद्यत एक भंवर भी
बेकाबू नौका
दौड़ती है
रक्त की नदी में

यहीं कहीं स्मृति थी
ऊबड़-खाबड़ स्वप्न थे
एक परिचित दुनिया थी
उसके होने की सांत्वना थी
अचानक यह क्या हो गया?

किनारे खड़ी नौका का
गंगा में शिशुमार
Posted on 02 Dec, 2013 11:12 AM पानी में अचानक एक अजीब-सी आकृति निकली
और डूब गई
दशाश्वमेध घाट से कोई सौ मीटर दूर
जब कोई इसके लिए तैयार नहीं होता
वे बचे-खुचे परिवार
देशकाल की संधियों को छेड़ते हैं
उन्हें बचपन से बनारस में देखा है
कैलीफॉर्निया के नमकीन पानी में
उन्हें करीब से छूने के बरसों पहले
और बाद में भी
और अब उन्हें ब्रह्मपुत्र में देखा
गंगा केवल एक नदी का नाम नहीं
Posted on 02 Dec, 2013 10:13 AM मैं जब-जब इसके घाटों पर खड़ा होता हूं
मुझे मां की आंखों की याद आती है

मेरे लिए यह सिर्फ एक नदी नहीं
मां है
मेरे थके तलुए सहलाती हुई
और मेरी फटी बिवाई में मोम भरती हुई

मां
इसका पानी
अपने घर में अमृत की तरह संजोकर रखती है
और पीढ़ियों तक सींचती है इससे
अपने घर की जड़ों को

मां को इस नदी के घाटों पर स्वर्ग दिखता है
ब्रह्मपुत्र
Posted on 02 Dec, 2013 10:01 AM नील-नीर-परिधान सुशोभित हलधर-सा कृषि का उत्थान-
करता हूं निष्प्राण ऊसरों को उर्वर में जीवन-दान।
आ-आकर मिलती है मुझमें सरिताएं बहुसंख्य-सहास;
सरस-नवीन कल्पनाएं ज्यों आती सिद्ध सुकवि के पास।

तुषाराद्रि ने आयोजित की, नद-नदियों में जो कि अनन्य-
लंबी दौड़ प्रतिस्पर्धा, मैं उसमें सर्वजयी हूं धन्य।
मेरे धावन की लंबाई, धारा की चौड़ाई और-
आकाश-गंगा
Posted on 01 Dec, 2013 03:51 PM जो है असीम उत्प्रेक्षा - सा विस्तीर्ण परम,
आत्मा-जैसा निर्लिप्त, ज्योतियों का वैभव-
जो है रहस्य का केंद्र, वेद में नेति-नेति,
सरसी-समान ले विकच तारकों के कैरव।

जिसमें उड़ता उद्दाम विस्मयों का सौरभ,
अद्भुत रस का परिपाक महाकवि-सा करता।
ज्योतिषी - दूरगामिनी दृष्टि भी हार गई,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्रों में भेद नहीं भरता।
पावन है तेरी लहर, लहर
Posted on 01 Dec, 2013 03:45 PM जो पाप-दुर्ग पर दुर्गा-सी टूटती सर्वदा घहर-घहर,
हे अमरधुनी सरयू मैया! पावन है तेरी लहर-लहर।
नगपति के व्यापक आंगन में कन्या-समान इठलाती है,
धरती को करने हरा - भरा, ऊपर से नीचे आती है,
करती प्रचंड गर्जना कभी तू मधुर-मधुर कुछ गाती है,
पथबंधु वनों के वैभव से अपना संसार सजाती है,
तेरे पानी से मोती-सी आभा उठती है छहर-छहर।
ताम्रपर्णी
Posted on 01 Dec, 2013 03:36 PM शंकर से आज्ञापित मुनि ने, पर्वत के उच्च शिखर पर से-
दी छोड़ कमंडलु की गंगा, वरदान-जलद जैसे बरसे।
लहराती - बलखाती नीचे पिघले तांबे - सी चली धार-
थी कल्लोलिनी ताम्रवर्णी-फेनिल, सवेग, नटखट अपार।

बह उठी तीन धाराओं में ‘नारदी तीर्थ’ घेरती हुई-
मुनिवर कश्यप के आश्रम को कुंडलाकार घेरती हुई।
कुछ दूरी पर फिर ‘अग्निनदी’ उन ‘वेदतीर्थ’ धाराओं को-
वितस्ता का जन्मदिन
Posted on 01 Dec, 2013 03:29 PM सूर्यास्त तक बाट जोहती नदी में
मछलियों की तरह
उछलती-तैरती रही बेसब्री
रेशे-रेशे में अंधेरा घुलते हुए भी
बराबर सोचती है नदी
कि कोई तो आएगा ही
उसके जन्मदिन पर
विसर्जित करेगा गेंदे के फूल
गुलाब और दिए उसमें
कोई तो जरूर ही आएगा
वह बहती है सबके भीतर से
दिन-रात
दुलारती
गुनगुनाती
मैल धोती और ढोती हुई
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