Posted on 05 Dec, 2013 10:44 AMखिली हुई चांदनी में बिखरा है किसा बचपन। किसको याद है चांदनी पेड़ों से छनकर आई या दीवार से। मैं ही नहीं ज्यादा जानता अपने बचपन के बारे में ज्यादा तो किसी से क्यों कहूं नहीं जानता मुझे कोई। जैसे नैटवाड़ की नदियों रूपिन और सूपिन को नहीं जानता कोई। इनसे बनकर ही बनी है टौंस। और इनसे बनी भागीरथी, जिसने बनाई गंगा। बहरहाल। बड़े होकर मैं दोस्तों और रिश्तों में घुलमिल नहीं सका। मैंने कहा, नदी भी जब मिलती है
Posted on 05 Dec, 2013 10:39 AMएक छोटी-सी चिड़िया प्यासी हुई उड़कर आती है नदी से दो बूंद पानी पीकर नदी के बराबर हो जाती है
जितनी दूर तक बहती है लंबी-चौड़ी नदी कई-कई दिनों में उससे बहुत दूर कुछ ही पलों में धाड़ आती है चिड़िया और लौट आती है अपने घोंसले में चिड़िया का घोंसला कोई ब्रह्मा का कमंडल तो है नहीं कि उसमें समा जाए
Posted on 03 Dec, 2013 12:26 PMदूर किसी घर में कुछ गिरा है पीतल की गगरी-सा! लुढ़कती चला आई है टनटनाहट सूनी दोपहरी में कई देहलियां लांघकर। आवाज की एक नदी बह गई है इस घर से उस घर तक। इसमें धोकर अपने थके हुए हाथ सोचती है यह उसकी चौंकी हुई उबासी- हर घर से हर घर तक जाती है राह, इतना अकेला नहीं होता है आदमी! एक गूंज का दामन पकड़े अनगूंज कितने ले आएं कब भीतर-
Posted on 03 Dec, 2013 12:24 PMनाव भी एक स्त्री है उस युवती चित्रकार ने दिसंबर की एक शाम अपनी तस्वीरों को दिखाते हुए मुझे गैलरी में यही बताया था
उस गैलरी में आने से पहले मैं तो यही जानता था कि नाव तो लकड़ी का एक निर्जीव शरीर है और उस पर सवार होकर मैंने कई नदियां पार की थीं पर उस शाम के बाद मैंने जाना नाव भी बोलती है, सुनती है और सहती है एक भारतीय स्त्री की तरह
Posted on 03 Dec, 2013 12:23 PMदेवदार के पेड़ अभी जागे नहीं छतें चमकती हैं व्यास के पार बर्फीली चोटियों की तरह
जुट गए मजदूर सुबह ही काम पर पत्थरों को तराशने नदी की तरह, बादल अभी पीछे ही है चोटियों से फिसलती है ओस तंबू पर वनस्पतियों पर पहली रोशनी-सी गिरती झरती देवदार की शाखाओं से
अपने बारे में देखा था कोई सपना रात में जो याद नहीं अब
Posted on 03 Dec, 2013 12:22 PMडूबने से पहले मां की काया अपनी सतह पर तूफान में घिरी कश्ती की तरह हिचकोले खा रही है। हम पलंग के किनारे खड़े हैं। खिड़की के पार का संसार खाली होना शुरू हो गया है। पिता की आकाश के पीछे से चहलकदमी की आवाजें धीरे-धीरे नीचे की ओर झरने लगी है। हलके से प्रकाश में क्षण-भर को मां के दांत चमकते हैं और फिर सब शांत हो जाता है।
Posted on 03 Dec, 2013 12:21 PMवह आकाशगंगा में बहते-बहते मेरे स्वप्न के किनारे आ लगी है। मैं अपने प्रेम में बहता उसके अभाव में फैल गया हूं चुपचाप। वह चमचमाती बालू पर लड़खड़ाकर चल रही है। अंतरिक्ष का सुनसान उसके पैरों की थापों से धीरे-धीरे कांप रहा है। उसके लंबे खुले बालों में सीपियां, शंख और घोघें उलझ गए हैं।