Posted on 05 Dec, 2013 11:07 AMभाषा के जल की नदी है जैसे यह जल है भाषा का जैसे भाषा ही जल है जैसे कबीर का कूप है कहीं आसपास जैसे कूप में जल नहीं भाषा है कबीर की
इस नदी में नाव है एक इस तरह इस नदी में जल के अलावा भी कुछ है इस तरह नदी के जल को सहूलियत से बरतने के लिए भाषा पतवार है
Posted on 05 Dec, 2013 11:02 AMहमेशा बहती रहती है मेरे अंदर यह नदी जैसे धमनियों के अंदर बहता है खून मुझे जिंदा किए हुए मेरे अंदर उसी तरह रहता है मेरा गांव व लहलहाते खेत, खलिहान, मस्त हवा में झूमते पेड़ जैसे जीवन के आखिरी पलों तक रहती है मां की याद और मेरे बाद भी यह नदी यह बलुहे तट यह मझधार में तैरती नावों पर गूंजता मांझी गीत और बंसी की डोर से कसे
Posted on 05 Dec, 2013 10:50 AMमैं जानता हूं तुम कुछ नहीं सोचती मेरे बारे में तुम्हारी एक अलग दुनिया है जादुई रंगों और करिश्माई बांसुरियों की
एक सुनसान द्वीप पर अकेले तुम आवाज देती हो जल-पक्षियों को एक निर्जन नदी के किनारे में कभी अंजलि भरता हूं बहते पानी से कभी बालू पर लिखता हूं वे अक्षर जिनसे तुम्हारा नाम बनता है
Posted on 05 Dec, 2013 10:48 AMसूखी नदियों के पाटों का रंग चलो दिखाऊं गर हिम्मत है तो आकार केवल आकार नदियों का नाम उन्हें फिर भी मिला हुआ रेत हमारे सीने तक आ जाती है यह है नदी का रास्ता यह सूखापन भी जाता है आरंभ तक अंत तक पंछी उन्हें पार करता है और मन में हूक उठती है एक कल्पना जो अतृप्त रहेगी की चले चलें इसके साथ-साथ और ध्यान देने पर यह बात उभरती आती है