Posted on 22 Mar, 2010 01:32 PM सावन सोये ससुर घर भादों खाये पूवा। खेत-खेत में पूछत डोलैं तोहरे केतिक हूवा।।
भावार्थ- आलसी और सुस्त किसान सावन मास में ससुराल में रहे, भादों में पूवा खाता रहे और फसल पकने पर दूसरों से पूछता फिरता रहे कि तुम्हारे खेत में कितनी पैदावार हुई? ऐसा किसान किसी लायक नहीं होता है और सदैव परेशान रहता है।
Posted on 22 Mar, 2010 01:24 PM नित्तै खेती दुसरे गाय। नाहीं देखै तेकर जाय।। घर बैठल जो बनवै बात। देह में बस्त्र न पेट में भात।।
भावार्थ- जो किसान रोज खेती का कार्य नहीं करता और हर दूसरे दिन गाय को नहीं देखता, उसकी दोनों चीजें बर्बाद हो जाती हैं। यदि घर में बैठे-बैठे सिर्फ बातें करता रहता है तो उसके देह पर न तो वस्त्र रहता है और न ही पेट में भात अर्थात् वह गरीब हो जाता है।
Posted on 22 Mar, 2010 01:15 PM दस हल राव आठ हल राना। चार हलों का बड़ा किसाना।।
भावार्थ- जिस किसान के पास दस हल की खेती है वह राव के बराबर है, जिसके पास आठ हल की खेती है वह राना है और जिसके पास चार हल की खेती है वह बड़ा किसान होता है।
Posted on 22 Mar, 2010 01:11 PM उत्तम खेती आप सेती। मध्यम खेती भाई सेती। निकृष्ट खेती नौकर सेती। बिगड़ गई तो बलाये सेती।।
भावार्थ- जो किसान का कार्य स्वयं करता है वह उत्तम होता है, जो भाई के भरोसे रहता है। वह मध्यम होता है और जो नौकर के भरोसे खेती कराता है वह निकृष्ट होता है। उसकी खेती यदि बिगड़ गयी तो नौकर की बला से।
Posted on 22 Mar, 2010 12:49 PM उत्तम खेती जो हर गहा। मध्यम खेती जो सँग रहा। जो पूछेसि हरवाहा कहाँ। बीज बूड़िगे तिनके तहाँ।।
भावार्थ- घाघ कहते हैं कि किसान स्वयं हल जोतता है उसकी खेती श्रेष्ठ होती है, जो हलवाहे के साथ रहता है उसकी मध्यम, लेकिन जो यह पूछता है कि हलवाहा कहाँ हैं? उसका बीज भी व्यर्थ चला जाता है।