प्लास्टिक के कणों का स्तर हमारी कल्पना से भी अधिक है। उन्होंने समझाया कि प्लास्टिक एक कृत्रिम पदार्थ है, जो समय के साथ अपनी नमी खोता है और छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता है।
उच्च गर्मी और आर्द्रता का संयोजन हमारे शरीर को ठंडा रखने वाले पसीने के तंत्र को प्रभावित कर सकता है। जब पसीना हमारी त्वचा से उड़ जाता है, तो हमारा शरीर शीतल होता है
हम हिमालय की सुरक्षा नहीं कर पा रहे हैं, जबकि हिमालय राष्ट्र की जीवनशक्ति है। सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक नदियां हिमनदों से ही निकलती हैं और ये हिमनद ग्लोबल वार्मिंग तथा ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से पिघलकर पीछे हटते जा रहे हैं। चिंतनशील भारतीय आज इसलिए स्तब्ध हैं कि आखिरकार वैज्ञानिकों की अनवरत चेतावनियाँ देने के बावजूद प्राकृतिक विनाश की प्रत्यक्ष क्षति देखते हुए भी हम हिमालय को अपने अवांछित निर्माण, खनन आदि गतिविधियों से अस्थिर क्यों कर रहे हैं?
नासा की एक खोज के अनुसार अंटार्कटिका में औसतन 150 बिलियन टन और ग्रीनलैंड आइस कैप में 270 बिलियन टन बर्फ प्रति वर्ष पिघल रही है। आगे आने वाले समय में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र आदि नदियां सिकुड़ जाएंगी और बढ़ता हुआ समुद्री जल स्तर खारे पानी की वजह से डेल्टा क्षेत्र को मनुष्य के रहने लायक नहीं छोड़ेगा।
गंगा केवल नदी नहीं है। यह देशवासियों की भावना से जुड़ी होने के अतिरिक्त कई जलीय जीवों का घर भी है। भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव गंगा में पाया जाने वाला डॉल्फिन है। गंगा का प्रदूषण इस डॉल्फिन की ज़िंदगी पर लगातार भारी पड़ रहा है और रोज़ इनकी संख्या घट रही है। सोचने की बात है कि क्रूज़ शिप का कचरा और ध्वनि प्रदूषण इनका क्या करेगा?
पहले जब यह उद्योग आयात और मशीन से बचा हुआ था, तो इसमें कॉटेज उद्योग के चरित्र थे, ह्यूमन इंटेंसिविटी ज्यादा थी, तब विकेंद्रीकरण था और अब बड़ी बड़ी पूंजी है, औटोमेशन है, मार्केटिंग के एक से एक इंतजामात हैं। पहले जब यह उद्योग अनऑर्गनाइज्ड था, तब सरकार की जीएसटी, वैट जैसे करों की वसूली इतनी व्यवस्थित नहीं थी, जितनी आज है। भारत की अर्थव्यवस्था में ग्लोबलाइजेशन के प्रवेश और आयात में मुनाफाखोरी ने बांस से सींक बनाने की इस वृहत्तर रोज़गार व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया.
शरणार्थियों की समस्याओं की निगरानी करने वाली संस्था यूएनएचसीआर के मुताबिक मौसम संबंधी घटनाओं मसलन बाढ़, तूफान, वनाग्नि और भीषण तापमान के कारण 2009-16 के बीच हर साल 2 करोड़ 15 लाख लोगों को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा।
हिमाचल में व्यास, रावी, सतलुज नदी के तटों की आबादी पर अधिक मार पड़ी है भारी जल सैलाब के खतरे को देखकर नदियों की अविरल धारा को रोकने वाले बांधों के गेट खोलने पड़े जिसके कारण लुधियाना, पटियाला जैसे अनेक इलाके लंबे समय तक पानी में डूबे रहे यमुना पर हथिनी कुंड के पास गेट खोलने से यमुनानगर, करनाल से लेकर दिल्ली तक पानी में डूब गए।
जलवायु परिवर्तन की काली छाया सिर्फ भारत में ही नहीं मंडरा रही है, यह समस्या वैश्विक समस्या बन चुकी है। वैश्विक सम्मेलनों में भी यह मुद्दा छाया रहता है. वर्ष 2011 के नवम्बर माह में डरबन में सम्पन हुए अंतराष्ट्रीय वैश्विक सम्मेलन में भी जमकर मंथन हुआ था। वर्ष 2015 में पोलैंड के कोटवाइस में एक उल्लेखनीय सम्मलेन हुआ था, जिसमें दुनिया के 200 देश जलवायु परिवर्तन समझौतों के नियम-कायदे लागू करने के लिए सर्वसम्मति से सहमत हुए थे।
हमारे देश में काफी गरीबी है, सरकार का दावा है कि 80 करोड़ लोगो को सरकार अनाज बांट रही है। वर्ष 2021 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 101 वें स्थान पर है। देश का हर नागरिक स्वस्थ रहे, चिकित्सा गरीबों के लिए भी सर्वसुलभ हो, यह प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से ही हो सकता है।
बढ़ते शहरीकरण के कारण हमारे शहर अधिक जोखिम में हैं, क्योंकि शहरों में मानव जीवन का नुकसान, संपत्ति की क्षति और आर्थिक नुकसान की मात्रा ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु, दिल्ली और चेन्नई जैसे शहर लाखों लोगों के घर हैं और यहाँ जलवायु का जोखिम बहुत अधिक है।
नये वन कानून के प्रावधानों पर पर्यावरणविद् को आशंका है कि यह 'वन' की परिभाषा और सुप्रीम कोर्ट के 1996 के गौडावर्मन फैसले को पलट देगा। इस फैसले ने बहुत हद तक वन संरक्षण को बढ़ावा दिया था क्योंकि इसके तहत पेड़ों वाले उन इलाकों को भी वन कानून के दायरे में ला दिया गया था जो औपचारिक रूप से 'वन' के रूप में अधिसूचित नहीं थे, लेकिन जंगल माने जा सकते थे
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट बताती है कि पहाड़ी राज्यों में जो योजनाएं हैं, वे पहाड़ी इलाकों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। आम तौर पर पहाड़ी क्षेत्र ढलान अस्थिरता से जुड़े होते हैं, और इन क्षेत्रों में भूस्खलन की आशंका अधिक होती हैं।
राज्य सभा में दिए गए एक लिखित जवाब में वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने पुरानी बातें दोहराते हुए कहा कि 1976 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित महेश चंद्र मिश्रा समिति ने जोशीमठ में भूस्खलन और स्थानीय धंसाव की चेतावनी दी थी। उस समय 18-सदस्यीय समिति के सदस्य संगठनों के पास उपलब्ध विशेषज्ञता और संसाधनों के अनुसार विभिन्न दीर्घकालिक और अल्पकालिक उपाय सुझाए गए थे। उनके मुताबिक, मिश्र समिति की सिफारिशों पर उत्तराखंड सरकार द्वारा कार्रवाई की जानी बाकी है।
उत्तराखंड में इस बार एक जून से अभी तक की बारिश को भारतीय मौसम विभाग सामान्य से 13 फीसद अधिक बता रहा है। उसका कहना है कि सामान्य से 19 फीसद से अधिक होने ही बारिश को असामान्य माना जा सकता है, लेकिन इस बार बाढ़ ने ऐसी तबाही मचाई कि लोगों की खेती बर्बाद हो गई। कई लोग और पशु मारे गए। घरों तथा दुकानों के अंदर पानी घुस गया। बाढ़ का ऐसा प्रकोप हुआ कि सरकार को पानी में डूबे हरिद्वार के क्षेत्रों को आपदाग्रस्त क्षेत्र घोषित करना पड़ा।
बीते कई वर्षों की अगर बात की जाए तो यह गांव, पशुपालन के मामले में एक विशेष स्थान बनाए हुए है. ऐसा कोई घर नहीं है, जहां आपको माल मवेशी नहीं मिलेंगे. हालांकि ऐसा नहीं है कि यहां के लोग पूरी तरह पशुपालन पर ही निर्भर रहते हैं.
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में बाढ़ के कारण हर साल औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है, 1600 लोगों की जान चली जाती हैं, तथा फसलों, घरों और सार्वजनिक सुविधाओं को औसतन 1805 करोड़ रुपये का नुकसान होता है।