कुछ ही दिन हुए अतिवृष्टि से ऐसा नुकसान हुआ कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी चमोली के पीपलकोटी, अगथला, मायापुर, मेहरगांव, बौंला और दुर्गापुर आदि के 90 परिवारों को होटलों और धर्मशालाओं में शिफ्ट करने के निर्देश देने पड़े। भू-धंसाव के संकट के चलते जोशीमठ के सैकड़ों परिवारों को इसी तरह शिफ्ट करना पड़ा था। 2021 में रैणी हादसे के बाद चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी की मूर्ति तक को उनके गांव से विस्थापित होना पड़ा। जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी, हिमस्खलन, सुखाड़, भूस्खलन और गर्मी बारिश के पैटर्न में इतना अप्रत्याशित बदलाव दिख रहा है कि ऐसी घटनाएं बार-बार सामने आ रही हैं। लोगों की जीवन भर की पूंजी और जिंदगियां खत्म होती जा रही हैं। कहीं पीने के पानी का संकट पैदा हो रहा है, तो कहीं खेती पर संकट है। लगातार आतीं आपदाओं और इलाके के जीवन जीने लायक न रह जाने के कारण न जाने कितने लोगों को अपने बसे बसाए इलाके - छोड़ने पड़ रहे हैं। इस तरह दुनिया के लाखों लोग अपने मौलिक मानवाधिकारों से वंचित हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के असर के प्रति अति संवेदनशील हिमालय की बड़ी आबादी विस्थापन के खतरे से दो-चार है, अपने ही देश में शरणार्थी बन रही है।
शरणार्थियों की समस्याओं की निगरानी करने वाली संस्था यूएनएचसीआर के मुताबिक मौसम संबंधी घटनाओं मसलन बाढ़, तूफान, वनाग्नि और भीषण तापमान के कारण 2009-16 के बीच हर साल 2 करोड़ 15 लाख लोगों को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा। आने वाले दशकों में यह समस्या कई गुना बढ़ने वाली है। ताइवान स्थित अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक इंटरनेशनल एन्वायरमेंटल पार्टनरशिप (आईईपी) का अनुमान है कि 2050 तक दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं के कारण 120 करोड़ लोग विस्थापन की मार झेलेंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित होने के कारण इन लोगों को 1985 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कायर्कम के विशेषज्ञ एस्साम एल हिन्नावी ने क्लाइमेट रिफ्यूजी या जलवायु शरणार्थी की संज्ञा दी थी।
शरणार्थी बनते नागरिक
एक अनुमान के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया के 40 करोड़ मूल निवासी अपनी संस्कृति का मौलिक अधिकार ही नहीं, बल्कि आत्मनिर्णय और विकास का अधिकार भी खो देंगे। यही वजह है कि 2021 में संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद ने स्वच्छ, स्वास्थ्यकर और टिकाऊ पर्यावरण को मानवाधिकार के रूप में जलवायु परिवर्तन के कारण हर आपदा की तरह समाज के सबसे वंचित और कमजोर लोग ही सबसे पहले खतरे की जद में आएंगे और उन्हें या तो मौत का सामना करना होगा या फिर विस्थापन का। माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा नुकसान की आशंका वाले देशों में 50 फीसद शरणार्थी रहते हैं, और इन देशों में संघर्ष या हिंसा के कारण 70 प्रतिशत लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हैं। जलवायु में बदलाव का पहला निशाना घर से खदेड़ दिए गए यही लोग होंगे। नवम्बर, 2021 में गृह युद्ध का दंश झेल रहे सूडान का अलगना 35 हजार शरणार्थियों वाले शिविर बाढ़ में डूब गया था। देशों के बीच संघर्ष या गृह युद्ध भी जलवायु परिवर्तन के संकट को बढ़ा रहा है 2006-10 के बीच गृह युद्धग्रस्त सीरिया में फसलें बर्बाद हो गईं। इराक में आठ लाख लोगों की कमाई चली गई और देश के 85 फीसद पशु मारे गए। महंगाई आसमान छूने लगी। 15 लाख ग्रामीण श्रमिकों को रोजगार की तलाश में शहरों की ओर कूच करना पड़ा। जो गरीब गांवों में छूट गए वे आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के लिए अपनी फौज बढ़ाने के लिए आसान शिकार बने। इस संकट का असर यह पड़ा कि 66 लाख यानी सीरिया की कुल आबादी के एक चौथाई सीरियाई अपना देश छोड़कर विभिन्न देशों में शरणार्थी बनने को मजबूर हो गए। यूएनएचसीआर की ग्लोबल ट्रेंड्स इन फोर्ड डिस्प्लेसमेंट-2020 के मुताबिक 2020 में संघर्षों के कारण होने वाले विस्थापन का 90 फीसद विस्थापन उन देशों में हुआ जो जलवायु परिवर्तन के कारण सबसे अधिक खतरे में हैं।
आर्थिक पहलू से भी बर्बादी
जलवायु परिवर्तन केवल इंसानों की जिंदगी और कथित विकास के बुनियादी ढांचों पर ही बुरा असर नहीं डाल रहा, बल्कि सबसे बड़ा खतरा तो समाज और अस्थिर या नष्ट हो जाने का है, और फिर गंभीर सामाजिक और राजनीतिक संकट के खड़े होने का है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने के असर की तीन दशकों में तटीय इलाकों में रहने वाले 16 से 26 करोड़ लोग इसकी जद में आ गए जिनमें 90 फीसदी लोग गरीब विकासशील या छोटे द्वीपीय देशहै बंगलादेश में तूफानों के कारण आने वाली बाढ़ों ने 53 फीसदी कृषि भूमि का खारापन बढ़ा दिया है यानी अब वहां समान्य फसलें नहीं उपजाई जा सकतीं। यह खेती पर निर्भर लोगों की आजीविका पर बहुत बड़ा संकट है बंगलादेश में म्यांमार के नौ लाख रोहिंग्या शरणार्थी भी रह रहे है।
ऐसे में जब विस्थापन बढ़ेगा और बड़ी आबादी का एक देश से दूसरे देश में पलायन होगा तो समानता के अधिकार और भेदभाव के मुद्दे भी सिर उठाएंगे।हालांकि यह भी सच है कि मानव समूह का एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापन और पलायन उनकी जिंदगी भी बचाता है, लेकिन दुनिया जिस तरह सीमाओं में बंटी है, और दुनिया भर में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद जिस तरह उफान मार रहा है, उसमें इंसान का जिंदगी बचाने के लिए पलायन बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि अंध राष्ट्रवाद एक राष्ट्र के नागरिकों और दूसरे राष्ट्र से जान बचाकर आए शरणार्थियों के मानवाधिकारों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देता है। इस तरह वह दक्षिणपंथियों के लिए सांप्रदायिक या नस्ली ध्रुवीकरण का हथियार बन जाता है।
इन हालात में दुनिया भर में विस्थापन की मार झेल रहे लोगों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय कानूनों की जरूरत महसूस की जा रही है ताकि देशों की सीमाओं पर रहने वाले जलवायु परिवर्तन और आपदा के मारे लोगों के मानवाधिकारों की हिफाजत हो सके। जनवरी, 2020 में संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार कमेटी ने अपने फैसले में कहा था कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत जलवायु परिवर्तन या आपदा के कारण सीमाओं के आर- पार विस्थापित लोगों का अधिकार है कि वे उस देश में न लौटें जहां उनके जीवन और मानवीय गरिमा पर गंभीर खतरा है।
इस संकट से निजात के लिए बहुत से उपाय किए जा रहे हैं। मगर असली उपाय केवल एक है- पेरिस समझौते के मुताबिक पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ने से रोका जाए और उसे 1.5 सेल्सियस पर ही रखने की कोशिश की जाए। इस सबके लिए पूरी दुनिया के देशों की सरकारों, राजनीतिक दलों, नागरिक संस्थानों, बुद्धिजीवियों आदि को साथ आना होगा, हमें भी खुद को विश्व नागरिक समझते हुए अपनी जिम्मेदारियां निभानी होंगी।
स्रोत -राष्ट्रीय सहारा- शनिवार 26 अगस्त 2023, हस्तक्षेप 3 -hastkshep.rsatara@gmail.com
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