प्राकृतिक चिकित्सा : संभावना और विकल्प

प्राकृतिक चिकित्सा
प्राकृतिक चिकित्सा

भारत में प्राकृतिक चिकित्सा दिवस (नेचुरोपैथी डे) 18 नवंबर को प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य दवा रहित इलाज के माध्यम से लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार लाना है। प्राकृतिक चिकित्सा दिवस भारत सरकार के आयुष मंत्रालय द्वारा वर्ष 2018 से आयोजित करने का निर्णय लिया गया। यह चौथा वर्ष है जब इसका आयोजन पूरे देश में किया जा रहा है। आयुष मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ नेचुरोपैथी, पुणे ने गांधी-150 के अवसर पर 2 अक्टूबर 2020 को इसका आयोजन बड़े पैमाने पर करने का निर्णय लिया था। वेवीनार की एक श्रृंखला आयोजित की गई, जिसमें, यह दर्शाया गया कि गांधी जी के आत्मनिर्भरता सिद्धांत के आधार पर मनुष्य स्वास्थ्य के मामले में भी किस प्रकार आत्मनिर्भर बन सकता है।

भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का आरम्भ डॉक्टर वेंकट चलपति राव द्वारा दक्षिण भारत में किया गया, जब उन्होंने जर्मनी के नेचुरोपैथ डॉ लुई कूने की पुस्तक ‘द न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ का अनुवाद तेलुगू भाषा में वर्ष 1894 में किया। विश्व में प्राकृतिक चिकित्सा का उद्गम जर्मनी और यूरोप के अन्य देशों में माना जाता है। जब वहां 16वीं, 17वीं शताब्दी में जल चिकित्सा (हाइड्रोथेरेपी), जड़ी बूटियों से बनी दवा (हर्बल मेडिसिन) और अन्य पारंपरिक उपायों से लोगों को स्वस्थ करने की प्रक्रिया अपनाई गयी। श्रुति किशन स्वरूप ने डाॅक्टर चलपति राव की पुस्तक का वर्ष 1905 में हिंदी में अनुवाद किया, जिस कारण उत्तर भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार प्रसार आरम्भ हुआ। गांधीजी एडोल्फ जस्ट की पुस्तक ‘रिटर्न टू नेचर’ पढ़ने के बाद नेचुरोपैथी में विश्वास करने लगे। उन्होंने हरिजन में नेचुरोपैथी के बारे में कई लेख लिखे।

महात्मा गांधी प्राकृतिक चिकित्सा के बहुत बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने सर्वप्रथम नेचुरोपैथी हॉस्पिटल की स्थापना उरलीकांचन, पुणे में 1945 में की थी, जहां गांधी जी के कब्ज के रोग को डाॅक्टर दिनेश शाॅ मेहता द्वारा प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से ठीक किया गया। गांधी जी ने अपने परिवार के सदस्यों को भी प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से ठीक किया था। गांधी जी का स्वर्गवास होने के बाद गांधी स्मारक निधि की स्थापना हुई, जहां उनके रचनात्मक कार्यक्रमों के साथ साथ प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य हुआ। इसके लिए गांधी स्मारक प्राकृतिक चिकित्सा समिति का गठन किया गया, जहां शिक्षा के माध्यम से सम्पूर्ण देश में इसका काफी प्रचार प्रसार हुआ।

यह दवा रहित, सर्वसुलभ चिकित्सा पद्धति है, जिसका शरीर पर कोई दुष्प्रभाव (साइड इफ़ेक्ट) नहीं होता। हमारे देश में काफी गरीबी है, सरकार का दावा है कि वह 80 करोड़ लोगों को सरकार अनाज बांट रही है। वर्ष 2021 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 101 वें स्थान पर है। देश का हर नागरिक स्वस्थ रहे, चिकित्सा गरीबों के लिए भी सर्व सुलभ हो, जो प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से ही हो सकता है। गांवों में भी प्राकृतिक चिकित्सा के लिए सभी संसाधन उपलब्ध है।

हाल के दिनों में यह भी देखा गया है कि कुछ ऐसे रोगी भी प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र पर इलाज के लिए आ रहे हैं जो सभी प्रकार के विशेषकर एलोपैथी का इलाज कराने के बाद भी ठीक नहीं हुए और यहां, आने के बाद ठीक होकर गए। ऐसे लोगो के माध्यम से भी प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार प्रसार हो रहा है। यह चिकित्सा गैर संचारी रोग में बहुत उपयोगी है, जिसमें मृत्यु दर 61 प्रतिशत है। इसकी निवारक उपाय में भी अहम भूमिका है। हाल के वर्षों में भारत सरकार द्वारा जिस प्रकार योग को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिकता के आधार पर प्रचारित किया गया, उसी प्रकार प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को भी प्रचारित प्रसारित करने की आवश्यकता है।

भारत सरकार द्वारा आयुष मंत्रालय का गठन 9 नवम्बर, 2014 को किया गया। वर्ष 2015-16 में इस मंत्रालय का बजट रूपए 1200/- करोड़ था जो वर्ष 2020 में रूपए 2122/- करोड़ और वर्ष 2021 में चालीस प्रतिशत बढ़ा कर रूपए 2970/- करोड़ रखा गया। वर्ष 2017 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति लागू करने के बाद यह जाहिर होता है कि सरकार का ध्यान स्वस्थ रहने की इस परंपरागत पद्धति की ओर गया है।

आयुष मंत्रालय के अंतर्गत आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होमियोपैथी छ: प्रकार की चिकित्सा पद्धति को रखा गया है। योग और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को छोड़ कर बाकी चारों पद्धतियों के लिए नियामक प्राधिकरण है और सरकार इसकी शिक्षा पर काफी ध्यान दे रही है। उदाहरणत: यदि आप आयुर्वेद, होमियोपैथी, यूनानी या सिद्ध पद्धति के लिए कालेज, विश्वविद्यालय आरम्भ करना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको विधिवत नियामक प्राधिकार से अनुमति लेने की आवश्यकता होती है। आयुष मंत्रालय की वेबसाइट पर जाने पर शिक्षा के लिए इन चारों विधाओं के बारे में विभिन्न परिपत्र, आदेश, मार्गदर्शिका मिल जाएगी, परंतु योग और प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में ऐसा नहीं है। इन चारों विधाओं में कोई भी मनमाने तरीके से संस्था खोल कर शिक्षण कार्य नहीं कर सकता है। अत: चिकित्सा की इन दोनों वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के मानकीकरण के लिए भी प्राधिकरण गठित करने की आवश्यकता है या आयुष मंत्रालय स्वयं इस विषय पर योग्य निर्णय करे, ताकि स्वास्थ्य की इस दवा रहित पद्धति में लोगो का विश्वास और पुख्ता हो सके। मनमाने तरीके से बिना गुणवत्ता की पढ़ाई प्राकृतिक चिकित्सा में नहीं होनी चाहिए।

स्वास्थ्य उद्योग (शरीर, मन और आत्मा का स्वस्थ होना) लगभग पांच हजार करोड़ रूपये का है। लोगों के पास अधिक धन आने की वजह से वे अपनी अस्वास्थ्कारी जीवनचर्या बदलना चाहते है जिससे यह उद्योग और बढ़ेगा। यह भी देखा जा रहा है कि लोग बड़े पैमाने पर उपचारात्मक स्वास्थ्य देखभाल के बजाय निवारक स्वास्थ्य देखभाल की ओर झुक रहे हैं, जिसके लिए प्राकृतिक चिकित्सा एक परिपक्व विकल्प है। प्राकृतिक जीवन केंद्र, पट्टीकल्याणा, हरियाणा में काफी संख्या में ऐसे लोग आ रहे हैं, जो स्वस्थ तो हैं, पर शरीर के अन्दरूनी सफाई और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष आते हैं।

वर्ष 2020 और 2021 में कोरोना महामारी की वजह से सभी लोग त्रस्त थे, कोई इंजेक्शन भी ईजाद नहीं हुआ था। केवल निरोधक उपाय का विकल्प था, उस समय सभी चिकित्सा पद्धतियां, जिसमें एलोपैथी के डाॅक्टर भी हैं, केवल रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के लिए योग और प्राकृतिक चिकित्सा का उपाय बता रहे थे, जैसे गरारे करना, नेति क्रिया, योग की विभिन्न क्रियाएं; संतुलित आहार में फल, सब्जी, नींबू पानी, उपवास, अच्छी नींद, सैर करना आदि। इसके अतिरिक्त सामाजिक दूरी, एकांत वास, अत्यधिक स्वच्छता अदि के कारण भी स्ट्रेस, एन्गजायटी आदि बीमारियों से लोग परेशान हुए जिससे उनकी मनोवैज्ञानिक, शारीरिक क्षमताओं पर असर पड़ा। उपचार के लिए प्राकृतिक चिकित्सा आवश्यक है। इस चिकित्सा पद्धति की अपार संभावनाओं को देखते हुए सरकार को इसके विकास, शोध, शिक्षण के मानकीकरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

स्रोत - सर्वोदय जगत 

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Post By: Shivendra
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