जहां एक तरफ देश में भारी बारिश और भूस्खलन से पहाड़ी राज्यों में तबाही जारी है, दूसरी तरफ राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित 2019 रणनीति दस्तावेज से कुछ चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आए हैं ये किस प्रकार विचारहीन शहरी नियोजन तथा निर्माण संबंधी कानूनों और विस्तृत भूमि उपयोग नीति के अभाव ने इस समस्या को अधिक व्यापक बनाया। आपदाएं आती रहीं फिर भी इनसे संबंधित चिंताओं को बार- बार नजरअंदाज कर दिया गया। इस उलट इस क्षेत्र में अत्यधिक पर्यटन को बढ़ावा दिया गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पहाड़ी राज्यों के लिए किसी प्रकार की कोई विशेष 'भवन योजना' थी ही नहीं, और इसे पूर्णतया दिल्ली मास्टर प्लान' से कॉपी किया गया है। वहीं दिल्ली मास्टर प्लान वर्षों से पर्यावरण पारिस्थितिक चिंताओं को ध्यान में न रखने के कारण आलोचना के घेरे में है। रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट है कि किस प्रकार विचारहीन योजनाओं ने यमुना के बाढ़ क्षेत्र का अतिक्रमण किया और आज स्थिति यह है कि पूरी दिल्ली पानी के डूबने की नौबत बन गई है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट बताती है कि पहाड़ी राज्यों में जो योजनाएं हैं, वे पहाड़ी इलाकों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। आम तौर पर पहाड़ी क्षेत्र ढलान अस्थिरता से जुड़े होते हैं, और इन क्षेत्रों में भूस्खलन की आशंका अधिक होती हैं। हाल में भूस्खलन, बादल फटने और बाढ़ जैसी घटनाओं के दौरान बड़े पैमाने पर संपत्ति के नुकसान से साफ जाहिर है कि अधिकांश निर्माण योजनाएं गलत हैं, और मानक मानदंडों का पालन नहीं करतीं। आम तौर पर सरकारी विभागों द्वारा भी डिजाइन प्लान जैसी किसी चीज का पालन नहीं किया जाता। यही कारण है कि टेक्टोनिक रूप से सक्रिय इन अस्थिर पहाड़ी इलाकों में हर साल बड़ी संख्या में और ज्यादा असुरक्षित भवन जुड़ जाते हैं। लगभग हर स्तर पर खामियों को उजागर करते हुए सितम्बर, 2019 में प्रकाशित रिपोर्ट में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कहा कि देश में बेहतर कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर भूमि उपयोग नीति नहीं है।
हिमालयी शहरों का अभूतपूर्व विस्तार
हिमालयी शहरों का अभूतपूर्व पैमाने पर विस्तार हो रहा है, और इसी के साथ कचरे और प्लास्टिक के पहाड़ों का भी। पानी की दीर्घकालिक कमी को भी रिपोर्ट में उजागर किया गया है। खासकर पर्यटकों की भीड़ को ध्यान में रखते हुए इन शहरों को बेहतर योजना की आवश्यकता है। कई राज्यों ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने से लेकर पर्यटकों पर टैक्स लगाने तक का भी प्रयोग किया है। इस रिपोर्ट ने विशेष रूप से शिमला की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि शिमला शहर को 20वीं सदी की शुरुआत में पच्चीस हजार की आबादी के लिए बनाया गया था, लेकिन आज इसमें तीन लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। स्पष्ट है कि शिमला उस जनसंख्या सीमा को पार कर चुका है, जिसके लिए मूलतः इसे बसाया गया था। गौरतलब है कि हाल के वर्षों में शिमला जगह की कमी के साथ-साथ पानी की भी भारी कमी का सामना कर रहा है। शिमला का लगभग 90% हिस्सा चार से पांच मंजिल ऊंची इमारतों से ढका हुआ है। यही कारण है कि सटीक योजना के अभाव में तबाही भी बहुत बड़े स्तर की हो सकती है। रिपोर्ट इस तथ्य पर भी प्रकाश डालती है। कि कैसे वनों की कटाई, सड़क बनाने और अधिक पानी की आवश्यकता वाली कृषि फसलों ने पहाड़ियों के संतुलन को बिगाड़ दिया है। वनों की कटाई के पीछे प्रमुख कारण घरों का निर्माण है, मुख्यतः लकड़ी के घर बनाए जाते हैं क्योंकि इनके निर्माण में लागत कम आती है। इसके अलावा क्षेत्र में सड़क निर्माण आदि के लिए पहाड़ी ढलान को काटने से निकटवर्ती क्षेत्रों में पारिस्थितिक क्षति और अस्थिरता पैदा होती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जब भी भूस्खलन जैसी घटनाएं होती हैं, तो खामियों को ठीक करने की बजाय ' त्वरित 'समाधान' का सहारा लिया जाता है।
एकीकृत डेटा का विश्लेषण और निगरानी के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एल्गोरिदम पर आधारित प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली ऐसा उपाय है, जिसे पहाड़ी क्षेत्रों में तत्काल अपनाने की आवश्यकता है। यद्यपि यह कुछ खर्चीला प्रतीत हो सकता है लेकिन इसके बावजूद ऐसी तरीका है जिससे संकट को स्थायी रूप से प्रबंधित या मैनेज करने में मदद मिलेगी।
स्रोत: - राष्ट्रीय सहारा शनिवार 26 अगस्त 2023
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