हिमालय बना आपदा का घर

हिमालय बना आपदा का घर
हिमालय बना आपदा का घर

हिमालय आपदा का घर बन गया है। पहाड़ तेजी से दरक रहे हैं। हाहाकार मचा हुआ है। हिमाचल और उत्तराखंड में 24 जून से 21 अगस्त, 2023 के दौरान भारी बारिश में भूस्खलन से सैकड़ों लोग मारे गए हैं। हिमाचल में 800 से अधिक स्थानों पर सड़कें बंद रहीं, जिनमें 113 स्थान ऐसे हैं, जहां जानलेवा लैंडस्लाइड्स के कारण 330 से ज्यादा लोगों की जान चली गई और 38 लोग लापता हैं। उत्तराखंड में 360 से अधिक डेंजर जोन बन गए हैं, जिसके चलते 449 स्थानों पर सड़कें बंद हो गई। यहां 78 से ज्यादा लोग मारे गए और 18 लोग लापता हैं। हिमालय के निचले राज्यों पर नजर डालें तो 16 जुलाई, 2023 तक गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, असम, मणिपुर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में 624 से ज्यादा लोगों की मरने की खबर थी। यह संख्या 1000 से ऊपर पहुंच सकती है।

हिमाचल में व्यास, रावी, सतलुज नदी के तटों की आबादी पर अधिक मार पड़ी है भारी जल सैलाब के खतरे को देखकर नदियों की अविरल धारा को रोकने वाले बांधों के गेट खोलने पड़े जिसके कारण लुधियाना, पटियाला जैसे अनेक इलाके लंबे समय तक पानी में डूबे रहे यमुना पर हथिनी कुंड के पास गेट खोलने से यमुनानगर, करनाल से लेकर दिल्ली तक पानी में डूब गए। आंकड़े बताते हैं कि इतनी भारी तबाही के बावजूद देश के कई हिस्सों में 2022 की तुलना में कम बारिश हुई है। तेलंगाना, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र सहित 12 राज्यों में कम बारिश हुई है। हिमाचल में सिरमौर में 762.3 मिमी बारिश हुई है। सोलन, कांगड़ा, बिलासपुर, शिमला, मंडी, कुल्लू, किन्नौर में भी बारिश हुई जिसके कारण भाखड़ा नांगल बांध के गेट 35 वर्ष बाद खोले गए। इस कारण होशियारपुर, रोपड़, गुरदासपुर, कपूरथला, फिरोजपुर फाजिल्का, अमृतसर, तरनतारन में बाढ़ जैसी हालत पैदा हो गई। उत्तराखंड में चारधाम की तरफ जाने वाली सड़कों पर सबसे अधिक भूस्खलन हुआ है।

नहीं लिया आपदाओं से सबक

हिमालय के विषय में कहा जा रहा है कि पिछले एक दशक की आपदाओं से कोई सबक न लेते हुए जहां- जहां पर चौड़ी सड़कें बनाई जा रही हैं, उन्हीं जगहों से सबसे अधिक भूस्खलन हो रहा है। दूसरा यह कि बाढ़ के दौरान नदियों के बहाव को अवरुद्ध करने वाली बांध परियोजनाओं के गेट खोलने से भी नदी तटों के निकटवर्ती स्थानों पर रहने वाले लोग भीषण आपदा की चपेट में आ गए। पहाड़ों में लगातार वन कटान और पर्यटकों की अधिक चाह में जितने भी निर्माण कार्य हो रहे हैं, अधिकांश इन्हीं के चलते लोगों पर आपदाएं आ रही हैं। दोष यह भी है कि नेता एवं योजनाकार पहाड़ और मैदान के अंतर को नहीं समझना चाहते जबकि भविष्य में इसके और अधिक दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे। दुनिया के पर्यटकों, सैलानियों को आकर्षित करने वाले 'जोशीमठ' में पिछले एक वर्ष से हो रहे भारी भू- साव के बाद कर्णप्रयाग, शिमला, चंबा, उत्तरकाशी के मस्ताडी, कुंजन गांव से भी भारी नुकसान की तस्वीरें सामने आ रही हैं। मसूरी की खूबसूरती पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। चमोली में 90 परिवारों के 366 लोग राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं।

शिमला का 25 फीसद हिस्सा डेंजर जोन बन रहा है। यहां इसी वर्षाकाल में शिव मंदिर और एक बड़ी इमारत के ढहने से दर्जन भर लोगों ने जान गंवाई। यहां के बारे में वैज्ञानिकों का कहना था कि शिमला अधिक से अधिक 25 हजार लोगों के रहने के लिए ही उपयुक्त है, लेकिन सैलानियों के लिए अधिक से अधिक होटल बनाने की होड़ में हजारों पेड़ काटे गए। यहां की ढालदार पहाड़ियों को खोदकर मलबा निकाला गया। बहुमंजिली इमारतें 70 डिग्री पर बनी हैं, जो भारी बारिश में नीचे की ओर कभी भी फिसल सकती हैं, जिसे देखकर 2015 में उच्च न्यायालय ने यहां 2 लाख से अधिक आबादी बढ़ने पर चिंता जाहिर की थी। अतिक्रमण का भी संज्ञान लिया गया था। कहा जाता है कि 1980-90 के बीच में बिना नक्शे, बिना प्लान पास किए ऊंची-ऊंची बिल्डिंग बनाने का सिलसिला शुरू हो गया था जबकि वहां पर ढाई मंजिला से अधिक ऊंचे मकान बनाने की स्वीकृति नहीं थी जिसका परिणाम है कि आज शिमला के चारों ओर आपदा के जख्म बढ़ते जा रहे हैं।

'हिमालय के विषय में कहा जा रहा है कि इस क्षेत्र में लगातार वन कटान और पर्यटकों की अधिक चाह में सड़कों के निर्माण एवं चौड़ीकरण समेत जितने भी निर्माण हो रहे हैं, उन्हीं के चलते यहां भूस्खलन हो रहा है। अधिकांश आपदाएं इन्हीं के चलते आ रही हैं। दिक्कत यह है कि नेता एवं योजनाकार पहाड़ और मैदान के अंतर को नहीं समझना चाहते। भविष्य में इसके और अधिक दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे।'

रात गुजारना मौत के इंतजार जैसा 

अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर बसे कर्णप्रयाग में भी भू-धंसाव, दरारें बढ़ती जा रही हैं। बरसात के दिनों में रात गुजारना मौत के इंतजार से कम नहीं है। देहरादून से मसूरी के पहाड़ को खोदकर केम्पटी फॉल तक पर्यटकों को आसानी से पहुंचने के लिए टनल प्रस्तावित है। यहां के जन सरोकारों से जुड़े जयप्रकाश उत्तराखंडी का कहना है कि मसूरी चूने के पहाड़ पर बसा है। इस पर बनी बहुमंजिली इमारतें और अनियंत्रित पर्यटकों को सहन करने की शक्ति घट रही है। इससे निपटने की बजाय हर दिन लाखों पर्यटकों के सैरगाह के लिए जितनी भी सुविधाएं पर्यावरण की बर्बादी करके की जा सकती है, उसमें कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। 

पहाड़ की चोटी पर बसे टिहरी गढ़वाल जिले के चंबा में सड़क चौड़ीकरण का काम तो हुआ ही इसके साथ यहां की धरती के नीचे टनल भी बनाई गई है जिसके ऊपर हजारों लोग निवास करते हैं। बीती 21 अगस्त को पहाड़ दरकने से अनेकों लोग मलवे के नीचे आकर मर गए और अनेक घर भी दब गए। केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग एक दशक से जानलेवा बना हुआ है। 2013 की आपदा में यहां हजारों लोगों ने जान गंवाई थी गौरीकुंड, जो केदारनाथ से पहले 15 किमी. पर है, में पिछले दिनों 22 लोग भूस्खलन में मारे गए और 18 लोग लापता हैं। केदारनाथ राष्ट्रीय मार्ग पर सड़क चौड़ीकरण के बाद जो मकान किनारों पर बने हुए हैं, वे भी ताश के पत्तों की तरह गिरे हैं। यहां अनेकों तीर्थयात्रियों ने जान गंवा दी। यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग में औजरी डाबर कोट के पास डेंजर बना हुआ है। बद्रीनाथ जाने वाले राजमार्ग पर भी पीपलकोटी में 12 परिवारों ने अपना घर छोड़ा है। उनकी सैकड़ों नाली जमीन भी भूस्खलन की चपेट में समाप्त हो गई है। गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर दर्जन भर डेंजर जोन हैं। यहां स्थित गंगनानी में गुजरात के तीर्थयात्रियों की बस बेकाबू हुई जिसमें से 7 लोग मारे गए।

बुलडोजर कर रहा गहरे घाव 

केदारनाथ के बाद बद्रीनाथ में भी पुनर्निर्माण एवं सौंदर्यीकरण के नाम पर पंच धाराओं में से दो धाराएं 'कूर्मधारा' एवं 'प्रहलाद धारा' का पानी छीज रहा है। मंदिर के नीचे बुलडोजर चलाने से यहां की धरती पर बहुत गहरेघाव पड़ रहे हैं। पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट ने बद्रीनाथ धाम के भू-गर्भीय, भू-प्राकृतिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र की याद दिलाते हुए राज्य सरकार को पत्र लिखा है जिसमें 1803, 1930, 1949, 1954, 1979, 2007, 2013, 2014 में आई आपदाओं के दुष्प्रभाव का जिक्र किया गया है। बताया है कि 1974 में बिरला ग्रुप के जयश्री ट्रस्ट ने बद्रीनाथ धाम का स्वरूप बदलने का कार्य शुरू किया तो इसका विरोध हुआ था। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के वित्त मंत्री नारायण दत्त तिवारी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसने इस कार्य को रोक दिया था। इस प्रकार बद्रीनाथ के सौंदर्यीकरण के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद यदि किसी संभावित नुकसान को नजरअंदाज किया जा रहा है तो इसकी जिम्मेदारी बाद में कोई लेने को तैयार नहीं होगा। भाजपा नेता रविंद्र जुगरान का कहना है कि जब 50 वर्ष पहले बद्रीनाथ में पुनर्निर्माण को नकारा गया था तो आज की स्थिति में यह कैसे संभव हो सकता है?

केदारनाथ का पुनर्निर्माण तो भीषण आपदा के कारण हुआ है। बद्रीनाथ में अभी बहुत कुछ बचा हुआ है। यथावत स्थिति को रखते हुए यहां के संवेदनशील पर्यावरण को बचाना आवश्यक है। इसलिए उच्च हिमालयी क्षेत्रों में कम से कम छेड़छाड़ हो । हिमालय क्षेत्र में भीषण आपदाएं आ रही हैं, तो दूसरी तरफ आपदा पीड़ित क्षेत्रों में ही विकास के नाम पर छेड़छाड़ के प्रति जो सावधानी रखनी चाहिए थी, वह कहीं दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति में हिमालय को आपदा का घर बनने में कोई नहीं रोक सकता।

पहाड़ों का कटान, खुदाई बड़ा कारण 

कई सालों के इंतजार के बाद इस साल मई में मंडी से कुल्लू को जोड़ने वाली सड़क के बीच की पांच अत्याधुनिक सुरंगें बनाई गईं। सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने तब इनमें से एक सुरंग का वीडियो रीट्वीट कर सोशल मीडिया पर शेयर किया था। उन्होंने बताया कि कैसे लोग इस सड़क का मजा ले रहे हैं, लेकिन आज कई जगहों पर ये पहचान पाना भी मुश्किल है कि वहां सड़क थी तो कहां थी। देश की सुरक्षा के नजरिए से अहम चंडीगढ़- मनाली सड़क जो आगे लेह में चीन की सीमा से जाकर मिलती है, उसके बारे में सवाल उठ रहा है कि ऐसी अहम सड़क का बुरा हाल क्यों है? कुल्लू में इन दिनों गांव-देहात के लोग भी आपको इसकी वजह गिनाते हैं, 'पहाड़ खड़े काटे गए' 
हिमालय के इलाकों में पर्यावरण संरक्षण पर काम कर रहे समाजसेवी संगठनों के समूह हिमालय नीति अभियान के संयोजक गुमान सिंह मानते हैं कि तिब्बत में चीन की देखादेखी यहां भी सड़कों के निर्माण पर जोर दिया, लेकिन इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया कि तिब्बती पठार की जमीन पक्की है, जबकि हिमालय अभी विकसित होते पहाड़ हैं। उन्होंने बताया, 'हम लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि पहाड़ों पर सड़कें कट एंड फिल तरीके से बनाई जाएं यानी पहले रिटेनिंग वॉल दी जाए, फिर उसे मलबे से भरा जाए और उसके बाद पहाड़ों को 45 डिग्री से ज्यादा ढलान में न काटा जाए, लेकिन उनका पालन कम ही होता है।'

कुल्लू में हुई तबाही का जायजा लेने के लिए नितिन गडकरी जुलाई में यहां दौरे पर आए थे। उस वक्त उन्होंने माना कि राजमार्ग जिन पहाड़ों पर बना है उसकी चट्टानें कच्ची हैं। उन्होंने कहा था कि देश के साथ विदेश के भी तकनीकी जानकारों की सलाह के बाद समस्या के हल के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार की जाएगी।

स्रोत :- राष्ट्रीय सहारालखनऊ। शनिवार 26 अगस्त 2023 hastkshep.rsatara@gmail.com

 

 

 

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Post By: Shivendra
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