प्राकृतिक आपदाएं वास्तव में प्राकृतिक घटनाएं हैं, जो प्रकृति के स्वभाव में हैं, और उन्हें रोका नहीं जा सकता। इन घटनाओं की बढ़ती फ्रीक्वेंसी का कारण प्रकृति के साथ अनावश्यक और बेतहाशा छेड़छाड़ के साथ ही प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर नहीं चलना भी है। यह सत्य आपदाओं से बचाव का रास्ता भी है। इसलिए संभावित खतरों और उनसे निपटने के तरीकों के बारे में जन जागरूकता बढ़ाना जरूरी है। कुछ आपदाएं ऐसी हैं, जिनसे अर्ली वार्निंग प्रणाली के माध्यम से बचा जा सकता है। भविष्य की घटनाओं के प्रति हमारी चिंताओं को कम करने के लिए आपदा जोखिम न्यूनीकरण में निवेश करने की तत्काल आवश्यकता है। आज तक अधिकांश ध्यान तूफान और भूस्खलन जैसी अचानक शुरू होने वाली घटनाओं से निपटने के लिए प्रतिक्रियाशील उपायों पर रहा है, जिसमें मानवीय सहायता राहत और तैयारी भी शामिल हैं
बरसात के दिनों में हिमालयी जुड़वां राज्यों - हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में आसमान से आफत बरस रही है। अतिवृष्टि से जहां-तहां तबाही मची हुई है। हिमाचल में अब तक 214 लोग जान गंवा चुके हैं, और 38 मलबे में कहीं गुम है। यही हाल उत्तराखंड का भी है। अभी मानसून पूरे यौवन पर है, और दोनों राज्यों में पहाड़ से लेकर मैदान तक तबाही का सिलसिला जारी है। आपदा के इस दौर में उत्तराखंड से लेकर जम्मू- कश्मीर तक तीर्थाटन और पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हो गया है, जिसका सीधा असर इन राज्यों का आर्थिकी पर पड़ेगा। सवाल केवल हिमालयी राज्यों का नहीं है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और पूरब से पश्चिम तक साल भर किसी न किसी तरह की आपदा से हमारे देश को दो-चार होना ही पड़ता है। भारत अपनी विशिष्ट भूसंरचना और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण अनेक तरह की आपदाओं के लिए काफी संवेदनशील है। प्राकृतिक आपदाओं में बाढ़, सूखा, चक्रवात, सुनामी, भूकंप, शहरी बाढ़, भूस्खलन, हिमस्खलन और जंगल की आग प्रमुख हैं।
देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 27 को आपदाओं की दृष्टि से संवेदनशील माना जाता है। 58.6 प्रतिशत भूभाग मध्यम से बहुत उच्च तीव्रता के भूकंपों के प्रति संवेदनशील है। 12 प्रतिशत भूमि बाढ़ और नदी कटाव से पीड़ित है। कुल 7,516 किमी. समुद्र तट में से 5,700 किमी. हिस्सा चक्रवात और सुनामी की दृष्टि से संवेदनशील है। देश की कुल खेती योग्य भूमि का 68 प्रतिशत हिस्सा सूखे की चपेट में आ जाता है। पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन और हिमस्खलन का खतरा बराबर बना रहता है, और 15 प्रतिशत भूभाग भूस्खलन की चपेट में है। कुल 5,161 शहरी स्थानीय निकाय शहरी बाढ़ की दृष्टि से संवेदनशील हैं। भारत का भूगोल बाढ़ के मद्देनजर अत्यधिक संवेदनशील है। देश के कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से 4 करोड़ हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र बाढ़ संभावित है। बाढ़ बार-बार आने वाली घटना है, जो जान- माल का भारी नुकसान करती है, और आजीविका प्रणालियों, संपत्ति, बुनियादी ढांचे और सार्वजनिक संविधाओं को नुकसान पहुंचाती है।
बाढ़ से लाखों हेक्टेयर भूमि का नुकसान
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में बाढ़ के कारण हर साल औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है, 1600 लोगों की जान चली जाती हैं, तथा फसलों, घरों और सार्वजनिक सुविधाओं को औसतन 1805 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। 1977 में सबसे अधिक जान (11,316) गई थीं। देश में औसतन हर पांच साल बाद बाढ़ की बड़ी आपदाएं आ जाती हैं। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन) की एक रिपोर्ट 'स्टे ऑफ क्लाइमेट इन एशिया - 2022' के अनुसार एशिया में 2022 में जलवायु परिवर्तन और जल संबंधी दैवी आपदाओं से 36,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर की आर्थिक क्षति हुई। इसमें से भारत की 420 करोड़ डॉलर की क्षति भी शामिल है, जो आज की तारीख में 34851.39 करोड़ रुपयों में आंकी जा सकती है।
दैवी आपदाओं से क्षेत्र विशेष में जनजीवन पर संकट के अलावा आजीविका और विकास का ढांचा तो तहस-नहस होता ही है साथ ही निकट भविष्य की आजीविका और विकास की संभावनाएं भी प्रभावित होती हैं। प्राकृतिक विप्लवों तटीय क्षेत्र के तूफान, उष्णकटिबंधीय तूफान और सुनामी से बंदरगाहों, तटीय सड़कों और पर्यटक सुविधाओं जैसे बुनियादी ढांचे को बड़ी क्षति पहुंचती है। सूखे, बाढ़ और चरम मौसम की घटनाओं से कृषि बहुत प्रभावित होती है। पर्यटन स्थल आपदाओं से बाधित हो जाते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था और आजीविका प्रभावित होती हैं। भूकंप से गगनचुंबी इमारतें, पुल और सड़कें सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। लातूर और भुज के विनाशकारी भूकंपों की विभीषिका को लोग दशकों तक झेलते रहे। नब्बे के दशक के चमोली और उत्तरकाशी के भूकंपों के घाव लोग आज तक नहीं भूले। लगभग समूचा हिमालयी क्षेत्र तथा पूर्वी और पश्चिमी घाट भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील हैं। इन क्षेत्रों में हर साल भूस्खलन से धन- जन की भारी हानि होती है। पहाड़ों के निचले इलाके नदी और बाढ़ के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं, खासकर भारी बारिश के दौरान इन क्षेत्रों में भारी नुकसान होता है।
प्रकृति के स्वभाव में हैं आपदाएं
प्राकृतिक आपदाएं वास्तव में प्राकृतिक घटनाएं हैं, जो प्रकृति के स्वभाव में हैं, और उन्हें रोका नहीं जा सकता। इन घटनाओं की फ्रीक्वेंसी निरंतर बढ़ती जा रही है। इस वृद्धि का कारण प्रकृति के साथ अनावश्यक और बेतहाशा छेड़छाड़ के साथ ही प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर नहीं चलना भी है। यह सत्य आपदाओं से बचाव का रास्ता भी है। इसलिए संभावित खतरों और उनसे निपटने के तरीकों के बारे में जन जागरूकता बढ़ाना जरूरी है। कुछ आपदाएं ऐसी हैं, जिनसे अर्ली वार्निंग प्रणाली के माध्यम से बचा जा सकता है। भविष्य की घटनाओं के प्रति हमारी चिंताओं को कम करने के लिए आपदा जोखिम न्यूनीकरण में निवेश करने की तत्काल आवश्यकता है। आज तक अधिकांश ध्यान तूफान और भूस्खलन जैसी अचानक शुरू होने वाली घटनाओं से निपटने के लिए प्रतिक्रियाशील उपायों पर रहा है, जिसमें मानवीय सहायता राहत और तैयारी भी शामिल हैं। हालांकि, सूखे जैसी धीमी गति से आने वाली आपदाओं के लिए जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार है जबकि आपदाओं के समय आपातकालीन उपाय महत्त्वपूर्ण होते हैं, और निरंतर प्रयासों की आवश्यकता होती है।
एक वैश्विक समुदाय के रूप में हमें प्रतिक्रियाशील से सक्रिय जोखिम न्यूनीकरण की ओर बढ़ना चाहिए। जोखिम कम करने में सक्रिय निवेश से देशों को इस प्रकार की आपदा के लिए तैयार होने में मदद मिल सकती है। भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया में वृक्षों का बेतहाशा कटान हुआ है, और हो रहा है, जिससे आपदाओं की फ्रीक्वेंसी बढ़ी है। वन और अन्य वनस्पतियां ढलानों को स्थिर करने में मदद करती हैं, और इसलिए भूस्खलन के खतरे को भी कम करती हैं। आर्द्रभूमियां बाढ़ को नियंत्रित करने में मदद कर सकती हैं। तटीय वनस्पति और रेत के टीले और मैंग्रोव जैसी प्राकृतिक विशेषताएं तूफान, तेज हवा और चक्रवात से सुरक्षा प्रदान कर सकती हैं।
स्रोत: - राष्ट्रीय सहारा शनिवार 26 अगस्त 2023
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