हम हिमालय की सुरक्षा क्यों नहीं कर पा रहे हैं

हाइड्रो आधारित विद्युत परियोजनाएं,Pc-सर्वोदय जगत
हाइड्रो आधारित विद्युत परियोजनाएं,Pc-सर्वोदय जगत

यह देखकर हम सभी स्तब्ध हैं कि भूकंप के प्रति संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में जानबूझकर एनटीपीसी द्वारा सुरंगों, मकानों और भारी भरकम बहुमंजिला होटलों का निर्माण क्यों हो रहा है? ब्यूरोक्रेसी भी जानबूझकर क्यों अनजान बन रही है?

महात्मा गांधी भोग व विलास की सामग्री जुटाने के लिए इंग्लैंड या पश्चिमी भौतिक जगत के ‘सुधार’ को वास्तव में बिगाड़ मानते थे, क्योंकि उससे पर्यावरण, पारिस्थितिकी और प्रकृति का विनाश होता है। बड़े-बड़े शहरों की स्थापना, स्मार्ट सिटी का निर्माण, विभिन्न योजनाओं के नाम पर गाँवों व कृषि भूमि का विनाश, औद्योगीकरण का अंधानुकरण, आध्यात्मिक केंद्रों और तीर्थ स्थलों का पर्यटन व व्यापार केंद्र के रूप में परिवर्तन तो विकास नहीं कहा जा सकता। अवैध खनन, वनों का विनाश, ग्लोबल ताप वृद्धि आदि तो मानव की लिप्सा का परिणाम है।

समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और कई महत्वपूर्ण नगरों के भविष्य में जल समाधि के लक्षण हैं। हिमालय के अंक में बसा टिहरी नगर तो टिहरी बांध में समा गया, जबकि उतने उच्च धरातल पर इतना विशाल बांध बनाने का औचित्य समझ में नहीं आता। यदि किसी कारण यह बांध टूटा तो मध्य उत्तर प्रदेश तक गंगा पर बसे कई नगर इसकी त्रासदी झेलेंगे। ब्यूरोक्रेसी क्यों जानबूझकर अनिर्णय की स्थिति में रहती है? क्यों निर्वाचित नेतृत्व को मजबूती से जनहित के पक्ष में निर्णय लेने के लिए प्रभावित नहीं करती? लगभग 2 वर्ष पूर्व इसी जोशीमठ क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने से आए जल-प्रलय से ऋषि गंगा ऊर्जा परियोजना ध्वस्त हो गई थी। प्रश्न केवल धन की क्षति का नहीं, वरन सर्वाधिक चिंता बहुमूल्य मानव हानि व पर्यावरणीय क्षति की है। यह प्रलय रैणी गांव में हुआ, जहां विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन का आरंभ गौरा देवी व उनकी सहयोगी महिलाओं ने किया था। उस विस्तृत कैनवस की भव्यता पर कालिख पुत गई थी और यह तब हुआ, जब देश 2013 में केदारनाथ त्रासदी में भयंकर विनाश झेल चुका है।

हम हिमालय की भू-भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, सुरक्षा नहीं कर पा रहे हैं, जबकि हिमालय राष्ट्र की जीवनशक्ति है। सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक नदियां हिमनदों से ही निकलती हैं और ये हिमनद ग्लोबल वार्मिंग तथा ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से पिघलकर पीछे हटते जा रहे हैं। चिंतनशील भारतीय इसलिए स्तब्ध हैं कि आखिरकार वैज्ञानिकों की अनवरत चेतावनी देने के बावजूद प्राकृतिक विनाश की प्रत्यक्ष क्षति देखते हुए भी हम हिमालय को अपने अवांछित निर्माण, खनन आदि गतिविधियों से अस्थिर क्यों कर रहे हैं?

देहरादून में लगभग 37 वर्ष पूर्व मैं अपर जिलामजिस्ट्रेट था। उस समय चूना-पत्थर की खुदाई के लिए अवांछित तत्वों में होड़ थी। छोटे-छोटे ट्रकों पर वे शिखरों पर चले जाते, विस्फोट कर पत्थर तोड़ते, उनको देहरादून तक लाते और बेचकर भारी लाभ कमाते, क्योंकि उन पत्थरों में लगभग 96 % शुद्ध चूना होता, जिसकी उद्योगों को आवश्यकता थी और उनके शोधन में भी बहुत कम खर्च आता। मैं नए खनन पट्टों के लिए ‘मेजर मिनरल एक्ट’ के अंतर्गत जिला मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग कर आवेदन निरस्त कर देता और ‘माइनर मिनिरल एक्ट’ के अंतर्गत शासन को अस्वीकृत करने के लिए प्रस्ताव भेज दिया करता था। तत्कालीन उद्योग व खनन मंत्री मेरे इस कृत्य से बहुत क्रोधित थे और मेरे लिए अत्यंत अभद्र और कलुषित भाषा का प्रयोग किया करते थे। विस्फोट से मसूरी के प्रतिष्ठित विद्यालयों की खिड़कियां चिटक जाती थीं और कई झरने, पानी के स्थाई स्रोत समाप्त हो गए थे। उन दिनों सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पीएन भगवती देहरादून आये थे। सर्किट हाउस देहरादून में मसूरी आदि पर्वत शिखरों की दुर्दशा और हरियाली का विनाश दिखाते हुए उन्होंने मुझसे कई प्रश्न किए। मैंने उनका ध्यान शासन की भूमिका की ओर आकृष्ट किया। न्यायमूर्ति भगवती ने एक प्रार्थना पत्र दूसरे ही दिन उन्हें भेजने के लिए कहा। हिमालय के प्रति प्रेम, राग की तीव्रता मुझमें इस सीमा तक थी कि उसी के अंक में प्राण त्यागने की मेरी कामना थी। हिमालय के प्रति अपने इसी प्रेम के कारण मैंने सीधे प्रार्थना पत्र उन्हें भेजा। मुख्य न्यायाधीश ने शीघ्र ही एक पीठ का गठन किया और एक खनन पट्टे को छोड़कर समस्त पट्टों को निरस्त कर दिया, इसलिए हिमालय का रक्षक मैं न्यायमूर्ति भगवती को ही मानता हूं।

गढ़वाल मंडल के आयुक्त महेश चंद्र मिश्र की अध्यक्षता में भूमि क्षरण और जोशीमठ नगर के धंसने के कारणों का पता लगाने के लिए एक समिति गठित की गई थी, उसने 7 मई, 1976 को अपनी आख्या दी, जिसमें स्पष्ट संस्तुति दी गई थी कि भारी, बड़े निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जाए, ढलवां भूमि पर कृषि नियंत्रित हो, बरसात के पानी की निकासी के लिए पक्के नाले निर्मित किये जाएँ, नदी के किनारे कटान रोकने के लिए उचित सीवेज-व्यवस्था और सीमेंट ब्लॉक बनाए जाएं। इन संस्तुतियों का भी ध्यान नहीं दिया गया। वैसे भी ये संस्तुतियां बहुत सीमित क्षेत्र के लिए थीं। हिमालय के बड़े क्षेत्र में जिस तरह विकास के नाम पर निर्माण चलते रहे हैं, खनन होते रहे हैं, जंगलों की कटान होती रही है, उससे तो और अधिक विनाश होंगे। वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर ध्यान न तो समाज ने दिया, न शासन-प्रशासन ने और न समाचार माध्यमों ने।

35 वर्षों से अधिक का समय बीत गया, जब मैं अविभक्त उत्तर प्रदेश में नैनीताल की प्रशासनिक अकादमी में संयुक्त निदेशक प्रशिक्षण व प्रशासन था। उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी मसूरी से प्रशिक्षण लेकर नैनीताल के प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान में 3 माह के लिए व्यवस्था, विधान, शासन-प्रशासन, प्रबंधन व प्रणाली का प्रशिक्षण लेने आते थे। कुमाऊं विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का हिमालय की भू-भौतिकी और नाजुक पारिस्थितिक तंत्र का अध्ययन स्तुत्य है। केवल डॉक्टर वाल्दिया आदि प्रोफेसर ही नहीं, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट को भी बुलाकर अधिकारियों के साथ इस महत्वपूर्ण विषय पर वार्ता कराई जाती थी। उस समय के कई बैचों के अधिकारी अनवरत मुख्य सचिव सहित शीर्ष विभागीय पदों पर रहे हैं। हम नहीं कह सकते कि हिमालय की संवेद्यता, भूकंप, भूस्खलन, भू-भौतिकी, पारिस्थितिक तंत्र आदि के बारे में वे नहीं जानते। मैं अविभक्त उत्तर प्रदेश का राहत आयुक्त भी रहा हूं और उत्तरकाशी में 1991 में आये भूकंप में मैंने राहत कार्य का संचालन किया था। उस समय ही मैंने भारत के सिस्मिक मानचित्र को उत्तर प्रदेश के मानचित्र पर अधिरोपित कर सभी विभागों और जिलाधिकारियों को भेजा था, भूकंप प्रतिरोधी भवनों का आईएसआई मॉडल, इस विषय के वैज्ञानिक प्रोफेसर आर्या से बनवाकर भिजवाया था। उत्तर प्रदेश के मानचित्र पर जो मानचित्र निरूपित किया गया था, उसमें जनपद चमोली, जिसके एक शहर जोशीमठ को ही आज अन्यत्र बसाने की बात हो रही है, सिज़्मिक ज़ोन-5 अर्थात सर्वाधिक भूकंप संवेद्य क्षेत्र में आता है। आज की जोशीमठ की यह स्थिति है कि 40%से अधिक घरों पर खतरा है, 800 मकानों में दरारें आ गई हैं और लगभग 30,000 जनसंख्या प्रभावित है।

हैलंग से तपोवन तक 12 किलोमीटर सुरंग बनने की योजना है, जिसमें 8 किलोमीटर तक सुरंग बन चुकी है। इसी सुरंग में टनल बोरिंग मशीन टीबीएम फंसी है। जनता का यह कहना है कि इस मशीन को निकालने के लिए ब्लास्ट किए गए हैं। जनता इस सुरंग के निर्माण को ही इस आपदा का कारण बता रही है। जनता की शिकायत है कि वे भूखे हैं, रहने को जगह नहीं है, छोटे बड़े सभी ठंड से बेहाल हैं, क्योंकि दरकते घरों से उन्हें निकाल दिया गया है। 19 स्थलों पर विस्थापितों को अस्थाई रूप से बसाया गया है और खाद्यान्न किट दी जा रही है। 131 परिवारों के 462 लोगों को अस्थाई शेल्टरों में रखा गया है। 46 प्रभावित परिवारों को 5000 प्रति परिवार घरेलू सामग्री के लिए दिया जा रहा है। प्रभावितों को प्रति व्यक्ति 1।5 लाख अंतरिम सहायता के रूप में दिया जा रहा है। जीवन हानि को बचाने के लिए ये तात्कालिक योजनाएं तो ठीक हैं, लेकिन लघु व दीर्घकालिक योजनाओं का कुछ पता नहीं है। कृपया कथित विकास की गतिविधियों को रोकें, महात्मा गांधी ने इन्ही को विनाश कहा था। जहां जन्म हुआ, जहां बचपन बीता, जहां बड़े हुए, पूरी संपदा लगाकर जहां घर बनाया, वहां से विस्थापन का दर्द क्या होता है, यह कोई भारत विभाजन के विस्थापितों से पूछे, कारण भले भिन्न रहा हो।

जोशीमठ की एक महिला नष्ट होने वाले अपने मायके के घर को देखने आई। रोते हुए उसने बताया कि यही मां ने भैंस पाल कर उसे और उसके भाइयों का पालन पोषण किया, उनका क्या होगा, अब उसी घर को केवल एक बार देखने आई हूँ। 16 महीने के बच्चे को लेकर एक महिला रो रही थी कि कहां शरण लें। 5-7 मंजिल ऊंचे बने कई होटल नींव छोड़ चुके हैं, उन्हें और घरों को बचाने के लिए उन्हें गिराना आवश्यक है, जबकि होटल वाले अवैध कृत्य करके भी अधिक मुआवजे के लिए आंदोलन कर रहे हैं। सेना के 25 से 28 भवनों में दरारें आ गई हैं। यह भी सुझाव दिया जा रहा है कि जो रेल लाइन जोशीमठ तक ले जाने की योजना थी, उसे कर्णप्रयाग तक ही ले जाया जाए, लेकिन कर्णप्रयाग में भी मंडी स्थल निर्माण से दो दर्जन मकानों में दरारें आ गई हैं। इस हिमालयी क्षेत्र में रेल लाइन ले जायी जाय या नहीं, यह गंभीर चिंतन का विषय है।

चंडीगढ़ में फ्रांसीसी वास्तुकार कार्बुसियर के बनाए भवनों के बंटवारे पर हेरिटेज का ध्यान देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। देवात्मा हिमालय घायल है, उसकी रक्षा और सुरक्षा के लेपन की आवश्यकता है। इसरो की सैटलाइट इमेज के अनुसार पिछले महीने 7 दिनों में जोशीमठ 9 सेंटीमीटर और धंस गया है, इसके बाद के 12 दिनों में 5।04 सेंटीमीटर और धंसा। केवल जोशीमठ ही नहीं, कर्णप्रयाग, उत्तरकाशी, गोपेश्वर, टिहरी, नैनीताल आदि में भी अवैज्ञानिक विकास के नाम पर अनुचित छेड़छाड़ या निर्माण, हमें जीवन हानि व संपत्ति हानि की ओर ले जा रहा है। शासन-प्रशासन व जनता को अब जागना चाहिए, बचाव का कार्य करना चाहिए।

स्रोत :- सर्वोदय जगत 

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Post By: Shivendra
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