सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत
सदानीरा
Posted on 18 Aug, 2013 01:09 PM
तुम्हें नहीं दीखीं?
बिना तीरों की नदी,
बिना स्रोत की
सदानीरा!

वेगहीन गतिहीन,
चारों ओर बहती,
नहीं दीखी तुम्हें
जलहीन, तलहीन
सदानीरा?

आकाश नदी है, समुद्र नदी,
धरती पर्वत भी
नदी हैं!

आकाश नील तल,
समुद्र भंवर,
धरती बुदबुद, पर्वत तरंग हैं,
और वायु
अदृश्य फेन!
तुम नहीं देख पाए!
धेनुएँ
Posted on 18 Aug, 2013 11:04 AM
ओ रँभाती नदियो,
बेसुध
कहाँ भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है।
ओ, फेन-गुच्छ
लहरों की पूँछ उठाए
दौड़ती नदियो,

इस पार उस पार भी देखो,
जहाँ फूलों के कूल

सुनहले धान से खेत हैं।
कल-कल छल-छल
अपनी ही विरह व्यथा
प्रीति कथा कहती
मत चली जाओ!

सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं!
नौका-विहार
Posted on 18 Aug, 2013 11:01 AM
शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
लहरे उर पर कोमल कुंतल!
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
गंगा का प्रभात
Posted on 17 Aug, 2013 11:26 AM
गलित ताम्र भव : भृकुटि मात्र रवि
रहा क्षितिज से देख,
गंगा के नभ नील निकष पर
पड़ी स्वर्ण की रेख!
आर-पार फैले जल में
घुलकर कोमल आलोक,
कोमलतम बन निखर रहा,
लगता जग अखिल अशोक!

नव किरणों ने विश्वप्राण में
किया पुलक संचार,
ज्योति जड़ित बालुका पुलिन
हो उठा सजीव अपार!

सिहर अमर जीवन कंपन से
खिल-खिल अपने आप,
गंगा की सांझ
Posted on 17 Aug, 2013 11:11 AM
अभी गिरा रवि, ताम्र कलश-सा,
गंगा के उस पार,
क्लांत पांथ, जिह्वा विलोल
जल में रक्ताभ प्रसार;
भूरे जलदों से धूमिल नभ,
विहग छंदों – से बिखरे –
धेनु त्वचा – से सिहर रहे
जल में रोओं – से छितरे!

दूर, क्षितिज में चित्रित – सी
उस तरु माला के ऊपर
उड़ती काली विहग पांति
रेखा – सी लहरा सुंदर!
उड़ी आ रही हलकी खेवा
दो आरोही लेकर,
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