पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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पहाड़ और नदी
Posted on 06 Sep, 2013 11:29 AM अधिष्ठित है
नगर का परम पुरुष पहाड़
नवागत चाँदनी के कौमार्य में,
आसक्ति को अनासक्ति से साधे,
भोग को योग से बाँधे,
समय में ही
समयातीत हुआ,

पास ही
प्रवाहित है
अतीत से निकल आई,
वर्तमान को उच्छल जीती,
भविष्य की भूमि की ओर
संक्रमण करती नदी,
गतिशील निरंतरता की जैसे वही हो
एकमात्र सांस्कृतिक,
चेतन अभिव्यक्ति।
बाढ़ 1948
Posted on 06 Sep, 2013 11:26 AM (‘डायरी’ एक ऐसी चीज, जिसे आप एक्स्पैक्ट करते है मुझसे लिखने के लिए, मगर जिसे कोंटेनेंस करने के लिए आप तैयार नहीं- मैं लिख रहा हूँ-लिख रहा हूँ-क्योंकि वह चीज खुद मैं भी, मैं खुद भी लिखना चाहता हूँ : और बिलाशुबह वह तो मेरा कोंटेनेंस है ही-मेरा चेहरा, मेरी रूह, हाँ, मेरी रूह।)

मिसेज ‘अश्क’ जो दरिया के सफे-मक्खनी उफान में
एक औरत का दिल लेकर, आसमान की आँखों में बैठ
उर्वरता की हिंसक भूमि
Posted on 03 Sep, 2013 11:50 AM
सन 1908 में हुई एक वैज्ञानिक खोज ने हमारी दुनिया बदल दी है। शायद किसी एक आविष्कार का इतना गहरा असर इतिहास में नहीं होगा। आज हममें से हर किसी के जीवन में इस खोज का असर सीधा दीखता है। इससे मनुष्य इतना खाना उगाने लगा है कि एक शताब्दी में ही चौगुनी बढ़ी आबादी के लिए भी अनाज कम नहीं पड़ा। लेकिन इस आविष्कार ने हिंसा का भी एक ऐसा रास्ता खोला है, जिससे हमारी कोई निजाद नहीं है। दो विश्व युद्धों से लेकर आतंकवादी हमलों तक। जमीन की पैदावार बढ़ाने वाले इस आविष्कार से कई तरह के वार पैदा हुए हैं, चाहे विस्फोटकों के रूप में और चाहे पर्यावरण के विराट प्रदूषण के रूप में।

दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे ही हादसे छोटे-बड़े रूप में होते रहे हैं। इनको जोड़ने वाली कड़ी है उर्वरक के कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट। आखिर खेती के लिए इस्तेमाल होने वाले इस रसायन में ऐसा क्या है कि इससे इतनी तबाही मच सकती है? इसके लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा उन कारणों को जानने के लिए, जिनसे हरित क्रांति के उर्वरक तैयार हुए थे।

इस साल 17 अप्रैल को एक बड़ा धमाका हुआ था। इसकी गूंज कई दिनों तक दुनिया भर में सुनाई देती रही थी। अमेरिका के टेक्सास राज्य के वेस्ट नामक गांव में हुए इस विस्फोट से फैले दावानल ने 15 लोगों को मारा था और कोई 180 लोग हताहत हुए थे। हादसे तो यहां-वहां होते ही रहते हैं और न जाने कितने लोगों को मारते भी हैं। लेकिन यह धमाका कई दिनों तक खबर में बना रहा। इससे हुए नुकसान के कारण नहीं, जिस जगह यह हुआ था, उस वजह से। धमाका किसी आतंकवादी संगठन के हमले से नहीं हुआ था। उर्वरक बनाने के लिए काम आने वाले रसायनों के एक भंडार में आग लग गई थी। कुछ वैसी ही जैसी कारखानों में यहां-वहां कभी-कभी लग जाती है। दमकल की गाड़ियां पहुंचीं और अग्निशमन दल अपने काम में लग गया। लेकिन उसके बाद जो धमाका हुआ, उसे आसपास रहने वाले लोगों ने किसी एक भूचाल की तरह महसूस किया।
पहाड़ की पीड़ा
Posted on 30 Aug, 2013 12:51 PM विधाता ने कितने श्रम से
बनाया होगा पहाड़ को
कि उसकी प्रिय कृति मनुज
कुछ तो निकटता
अनुभव कर सके उससे
ऊँचे ऊँचे वृक्ष,फल,वन पुष्प
बलूत, बुराँस,शैवाक
हरे भरे बुग्याल और
सबकी क्षुधा शांत करने हेतु
कलकल करते झरने
उन सबके मध्य
पसरी हुई घाटी से
होकर बहती पहाड़ की
लाडली नदी जिसे
बड़े यत्न से अपनी
जल नहीं अनंत है...
Posted on 30 Aug, 2013 12:50 PM यह विनम्र गंग धार
बह रही अनंत से
विमल चली थी स्रोत से
समल बना दिया इसे
विनाश तो विहंस हो
बजा रहा मृदंग है
दैव भी सुरसरि का
नाश देख दंग है
क्या हुआ है मनुज को
क्यों अंत देखता नहीं
ज्ञान क्या नहीं उसे
जल नहीं अनंत है
सभ्यता विहान से
युगों के आह्वान से
उदय है विज्ञान का
छू रहा है गगन आज
उसे हड़बड़ी थी
Posted on 27 Aug, 2013 12:41 PM पिछली रात
ठीक 3.22 पर एक हादसा हुआ...
मई-जून की वो भरी-पूरी झेलम
नील-निर्मल प्रवाहों वाली वो ‘वितस्ता’
मेरे ऊपर से होकर गुजरी-पिछली रात!
लगातार आधा घंटा तक, नहीं 45 मिनट लगे!
प्रवाहित होती रही मुझ पर से
मैं लेटा रहा, निमीलित-नेत्र...
मन ही मन जागरूक, मोद-मग्न...
आशीष की मुद्रा में मेरे होंठ हिलते रहे
जी हां, मैं मगन-मन लेटा रहा उतनी देर
वह फिर जी उठी
Posted on 27 Aug, 2013 12:40 PM पहाड़ी प्रदेश, ऊभड़-खाभड़!
छोटा नागपुर या मध्य प्रदेश का ऐसा ही
कोई इलाका...
छोटी-सी एक नदी
अपने आप में मस्त
हां, पहाड़ी नदी!
हरे-भरे किनारे
इधर भी जंगल, उधर भी जंगल!
जामुन, गूलर, पलाश, आम, महुआ, नीम...
सभी देखते हैं अपना-अपना चेहरा
-नदी के पानी में!
रात को झांकते होते हैं आसमान के तारे
जगमगाती है दिन के वक्त
बेतवा किनारे – 2
Posted on 27 Aug, 2013 12:38 PM लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर
बेतवा किनारे
गीतों में फुसफुस है
गीत के संग पर
बेतवा किनारे

मालिश फिजूल है
पुलकित अंग-अंग पर
बेतवा किनारे

लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर
बेतवा किनारे।

बेतवा किनारे – 1
Posted on 27 Aug, 2013 12:37 PM बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे
सलोनी सर्दी का निखरा है रूप
बेतवा किनारे
रग-रग में धड़कन, वाणी है चूप
बेतवा किनारे
सब कुछ भरा-भरा, रंक है भूप
बेतवा किनारे
बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे।

सन् 1979

देखना ओ गंगा मइया
Posted on 27 Aug, 2013 12:36 PM चंद पैसे
दो-एक दुअन्नी-इकन्नी
कानपुर-बंबई की अपनी कमाई में से
डाल गए हैं श्रद्धालु गंगा मइया के नाम
पुल पर से गुजर चुकी है ट्रेन
नीचे प्रवहमान उथली-छिछली धार में
फुर्ती से खोज रहे पैसे
मलाहों के नंग-धड़ंग छोकरे
दो-दो पैर
हाथ दो-दो
प्रवाह में खिसकती रेत की ले रहे टोह
बहुधा-अवतरित चतुर्भुज नारायण ओह
खोज रहे पानी में जाने कौस्तुभ मणि।
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