नौका-निर्वाण

यह रात मौन – व्रत धारे,
ओढ़े यह चादर काली,
लक्षावधि झिलमिल आंखे
क्यों दिखा रही मतवाली?

अंतरतर का अंधियारा
यह फैल पड़ा भूतल में,
सब ओर यही है छाया-
वन-उपवन में, जल-थल में।

कैसे बन गया अंधेरा
मेरा वह रूप उजेला?
कैसे लुट गया अचानक
मेरे प्रकाश का मेला?

क्या तुम सुनना चाहोगे?
वह तो है एक कहानी;
जग सुनके हंस देता है,
उलझी-सी बात बिरानी।

गिनता रहता हूं तारे,
सूनी कुटिया रोती है;
ये तारे हैं अंगारे
या थाल-भरे मोती हैं?

मोती की सुध आते ही
सोती पीड़ा जगती है;
ग्रीवा की माल तुम्हारी
हिय में डुलने लगती है।

आके बयार धीरे से
थपकी दे लगी सुलाने;
उस निशि की मधुर स्मृति को
हलके – से लगी भुलाने।

पर नींद हो गई बैरिन,
नैनों को छोड़ सिधारी;
यह रात, बिरात हुई है,
आंखे क्या करे बिचारी?

धीरे-धीरे सब बातें
जग-जगके आईं आगे;
विस्मृति ने नाता तोड़ा
ये पुनःस्मरण सब जागे।

उस निशि की सुध आई है,
जब शरद – चांदनी छाई,
नभ को करके आलोकित
सरिता-तट पे मुसकाई।

मेरी टूटी – सी नैया
गंगा के नीले जल में
डुलती थी, थिरक रही थी,
कंपित होती पल-पल में।

तुमको बिठलाके हिय में
पूनों का चांद निहारूं?
लहरों पे राज करूं मैं
तुम पे सब सरबस वारूं।

यह सोच-सोचकर नौका
हिय में हुलती डुलती थी;
उस दुग्ध-फेन रजनी में
मन की मिश्री घुलती थी।

कितने उल्लास भरे थे,
आशाएं हिय में कितनी;
अनुमान नहीं था, तुममें
होगी निष्ठुरता इतनी।

मैं ड्योढ़ी पे जा बोला-
सरकार, नाव डुलती है।
तुम बोल उठे-पागल की
क्षण में आंखे खुलती है।

उफ् ! कैसी निष्ठुरता थी !
क्या अरमानों का वध था !
उन वचनों में, हे निर्दय,
कितना पीड़ाकर मद था!

वह शरद-पूर्णिमा मेरी
सूनी ही रही अभागी;
उस रात लगा जो झटका,
हिय भी हो चला विरागी।

अब शीतल जल के तल में
मेरी तरणी सोती है;
तट पे, यह भग्ना वंशी,
उसकी पीड़ा रोती है।

इस रात, अचानक, कैसे,
सुध उस निशि की हो आई?
निष्ठुरा पुनः स्मृति मेरी
क्यों उसे खींच ले आई।

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