अति कृतज्ञ हूंगी मैं तेरी
ऐसा चित्र बना देना।
दुखित हृदय के भाव हमारे।
उस पर सब दिखला देना।
प्रभु की निर्दयता, जीवों की
कातरता दरसा देना।
मृत्यु समय के गौरव को भी
भली-भांति झलका देना।।
भाव न बतलाए जाते हैं।
शब्द न ऐसे पाती हूं।
इसीलिए हे चतुर चितेरे!
तुझको विनय सुनाती हूं।।
देख सम्हलकर, खूब सम्हलकर
ऐसा चित्र बना देना।
सुंदर इठलाती सरिता पर
मंदिर-घाट दिखा देना।।
वहीं पास के पुल से बढ़कर
धारा तेज बहाना फिर।
चट्टान से टकराता – सा
भारी भंवर घुमाना फिर।।
उसी भंवर के निकट, किनारे
युवक खेलते हों दो-चार।
हंसते और हंसाते हों वे
निज चंचलता के अनुसार।।
किंतु उसी! धारा में पड़कर
तीन युवक बह जाते हों।
थके हुए फिर किसी शिला से
टकराकर रुक जाते हों।।
उनके मुंह पर बच जाने का
कुछ संतोष दिखा देना।
किंतु साथ ही घबराहट में
उत्कंठा झलका देना।।
गहरी धारा में नीचे अब
एक दृश्य यह दिखलाना।
रो-रो उसे बहा मत देना
कुशल चितरे! रुक जाना।।
धारा में सुंदर बलिष्ठ-तन
युवक एक दिखलाता हो।
क्रूर शिलाओं में फंसकर जो
तड़प-तड़प रह जाता हो।।
फिर भी मंद हंसी की रेखा
उसके मुंह पर दिखलाना।
नहीं मौत से डरता था वह,
हंस सकता था बतलाना।।
किंतु साथ ही धीरे-धीरे
बेसुध होता जाता हो।
क्षण-क्षण से सर्वस्व दीप का
मानो लुटता जाता हो।।
ऊपर आसमान में धुंधला-सा
प्रकाश कुछ दिखलाना।
उसी ओर से श्यामा तरुणी का
धीरे-धीरे आना।।
बिखरे बाल विरस वदना-सी
आंखे रोई-रोई-सी।
गोदी में बालिका लिए,
उन्मन-सी खोई-खोई-सी।।
आशा-भरी दृष्टि से प्रभु की
ओर देखती जाती हो।
दुखिया का सर्वस्व न लुटने
पावे, यही मनाती हो।।
इसके बाद चितेरे जो तू
चाहे, वही बना देना।
अपनी ही इच्छा से अंतिम
दृश्य वहां दिखला देना।।
चाहे तो प्रभु के मुख पर
कुछ करुणा-भाव दिखा देना।
अथवा मंद हंसी की रेखा,
या निर्लज्ज बना देना।।
(यह कविता नर्मदा नदी के भंवर में फंसकर डूब जाने वाले देवीशंकर जोशी के मृत्यु पर लिखी गई है।)
ऐसा चित्र बना देना।
दुखित हृदय के भाव हमारे।
उस पर सब दिखला देना।
प्रभु की निर्दयता, जीवों की
कातरता दरसा देना।
मृत्यु समय के गौरव को भी
भली-भांति झलका देना।।
भाव न बतलाए जाते हैं।
शब्द न ऐसे पाती हूं।
इसीलिए हे चतुर चितेरे!
तुझको विनय सुनाती हूं।।
देख सम्हलकर, खूब सम्हलकर
ऐसा चित्र बना देना।
सुंदर इठलाती सरिता पर
मंदिर-घाट दिखा देना।।
वहीं पास के पुल से बढ़कर
धारा तेज बहाना फिर।
चट्टान से टकराता – सा
भारी भंवर घुमाना फिर।।
उसी भंवर के निकट, किनारे
युवक खेलते हों दो-चार।
हंसते और हंसाते हों वे
निज चंचलता के अनुसार।।
किंतु उसी! धारा में पड़कर
तीन युवक बह जाते हों।
थके हुए फिर किसी शिला से
टकराकर रुक जाते हों।।
उनके मुंह पर बच जाने का
कुछ संतोष दिखा देना।
किंतु साथ ही घबराहट में
उत्कंठा झलका देना।।
गहरी धारा में नीचे अब
एक दृश्य यह दिखलाना।
रो-रो उसे बहा मत देना
कुशल चितरे! रुक जाना।।
धारा में सुंदर बलिष्ठ-तन
युवक एक दिखलाता हो।
क्रूर शिलाओं में फंसकर जो
तड़प-तड़प रह जाता हो।।
फिर भी मंद हंसी की रेखा
उसके मुंह पर दिखलाना।
नहीं मौत से डरता था वह,
हंस सकता था बतलाना।।
किंतु साथ ही धीरे-धीरे
बेसुध होता जाता हो।
क्षण-क्षण से सर्वस्व दीप का
मानो लुटता जाता हो।।
ऊपर आसमान में धुंधला-सा
प्रकाश कुछ दिखलाना।
उसी ओर से श्यामा तरुणी का
धीरे-धीरे आना।।
बिखरे बाल विरस वदना-सी
आंखे रोई-रोई-सी।
गोदी में बालिका लिए,
उन्मन-सी खोई-खोई-सी।।
आशा-भरी दृष्टि से प्रभु की
ओर देखती जाती हो।
दुखिया का सर्वस्व न लुटने
पावे, यही मनाती हो।।
इसके बाद चितेरे जो तू
चाहे, वही बना देना।
अपनी ही इच्छा से अंतिम
दृश्य वहां दिखला देना।।
चाहे तो प्रभु के मुख पर
कुछ करुणा-भाव दिखा देना।
अथवा मंद हंसी की रेखा,
या निर्लज्ज बना देना।।
(यह कविता नर्मदा नदी के भंवर में फंसकर डूब जाने वाले देवीशंकर जोशी के मृत्यु पर लिखी गई है।)
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