वाराणसी में गंगा के तट पर एक शाम

सांध्य तट
आहट
निकट
अँधियार की-

चमकती रेती
वहाँ उस
पार की!

वृक्ष चुप-से खड़े
उड़ती हुईं
चिड़ियाँ
दूर!

रह-रह
बोलती कोयल।
उभरती नाव-
छोटी नाव के आकार की-

घाट
आकृतियाँ
टँगी हैं झंडियाँ कुछ,
थाह कुछ तो
सोचती
मँझधार की!

न जाने किस रंग में
क्या कहेगी,
लहर बिछली
उभर अबकी
बार की!

हो समर्पित दृश्य को-
लो,उमगती
आ रही वह चंद्रिमा
उजियार की!!

वाराणसी, 7 अप्रैल, 1999, ‘अक्षर पर्व’ वार्षिकी 2000 में प्रकाशित

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