काँव कौंवों की।
उतरतीं सूर्य किरणें।
उधर अब भी- उस तरफ
कुछ दूर, कोहरा तना।
पीठ पीछे सो रहे या
अभी जागे घर।
वृक्ष, अपनी जगह पर,
कुछ सिहरती-सी हवा।
जल लहरियाँ डोंगियाँ नावें
आँख की ही भाँति
उभरतीं उत्सुक।
इधर को या उधर को
कुछ झुक!
वहाँ, उस विस्तार में वह
एक मोटर बोट-
दृश्य की ही ओट
खड़े पर्वत शिखर
जैसे प्रार्थना में
लीन!
रुई-से छितरे हुए बादल!
सूर्य का आलोक छूता जल।
दृश्य का, पर, सदा रहता
बना एक
अतल!
पलटने को वहाँ, उस
विस्तार में,
है वही तो संबल
गुवाहाटी, 21 फरवरी, 2000, ‘अक्षर पर्व’ वार्षिकी 2000 में प्रकाशित
उतरतीं सूर्य किरणें।
उधर अब भी- उस तरफ
कुछ दूर, कोहरा तना।
पीठ पीछे सो रहे या
अभी जागे घर।
वृक्ष, अपनी जगह पर,
कुछ सिहरती-सी हवा।
जल लहरियाँ डोंगियाँ नावें
आँख की ही भाँति
उभरतीं उत्सुक।
इधर को या उधर को
कुछ झुक!
वहाँ, उस विस्तार में वह
एक मोटर बोट-
दृश्य की ही ओट
खड़े पर्वत शिखर
जैसे प्रार्थना में
लीन!
रुई-से छितरे हुए बादल!
सूर्य का आलोक छूता जल।
दृश्य का, पर, सदा रहता
बना एक
अतल!
पलटने को वहाँ, उस
विस्तार में,
है वही तो संबल
गुवाहाटी, 21 फरवरी, 2000, ‘अक्षर पर्व’ वार्षिकी 2000 में प्रकाशित
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